तंत्र की अदूरदर्शी नीतियों से बाधित शोधकार्य

- दिनेश सी. शर्मा
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (दिल्ली) (आईआईटी) और कुछ अन्य शीर्ष रैंकिंग प्राप्त अनुसंधान एवं शैक्षणिक संस्थानों को पिछले पांच वर्षों में मिली अनुसंधान राशि पर जीएसटी कर चुकाने का नोटिस मिला है। बताया गया है कि ब्याज और जुर्माने सहित अकेले आईआईटीडी की रकम 120 करोड़ रुपये बनती है। हालांकि, अकादमिक एवं वैज्ञानिक समुदाय ने इस मुद्दे पर खुलकर प्रतिक्रिया देने से गुरेज किया है, लेकिन उद्यमी और निवेशक टीवी मोहनदास पई ने इसको ‘कर आतंकवाद का सबसे बुरा रूप’ करार दिया है। ठीक एक महीने पहले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट में लैब केमिकल्स पर सीमा शुल्क 10 फीसदी से बढ़ाकर 150 फीसदी कर दिया था। उच्च शुद्धता वाले एंजाइम, अभिकर्मक (रीजेंट्स) और रसायन अनुसंधान के लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं और इन्हें आमतौर पर आयात करना पड़ता है। इस विचित्र कदम ने वैज्ञानिक समुदाय को सकते में डाल दिया क्योंकि इससे वर्तमान और भविष्य की परियोजनाओं की लागत रातो-रात बढ़ जाती है। हालांकि, मीडिया और सोशल मीडिया पर वैज्ञानिकों की नाराजगी की प्रतिक्रिया में यह भारी बढ़ोतरी वापस ले ली गई।



ये घटनाएं अलग-अलग नहीं हैं, जिन्हें नौकरशाही का अनाड़ीपन ठहराकर रफा-दफा किया जाए बल्कि ऐसी हरकतें जनता के पैसे से चल रहे अनुसंधान एवं उच्च शिक्षा को कमज़ोर करने वाली नीति का हिस्सा प्रतीत होती हैं। अनुसंधान फंडिंग पर यह टैक्स नोटिस, तकनीकी उपकरणों पर जीएसटी दर को 5 प्रतिशत से बढ़ाकर 18 फीसदी किए जाने के कुछ साल बाद आया है। इससे वैज्ञानिक एवं तकनीकी उपकरण, अन्य मशीनें, सहायक औजार और उपभोग्य सामग्री की खरीद काफी महंगी बन गई।

वैज्ञानिक अनुसंधान पर संभावित प्रभावों से चिंतित, प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार (पीएसए) के कार्यालय ने सरकार को एक प्रपत्र भेजा है, जिसमें कहा गया : ‘हो सकता है कि निजी संगठन टैक्स की दर में हुए परिवर्तन के प्रभावों को धीरे-धीरे पचा भी लें किंतु सार्वजनिक धन से चल रहे संस्थानों के लिए गुंजाइश कम है।’ इस पर, वित्त मंत्रालय ने जीएसटी वृद्धि के वास्तविक प्रभाव को कम करने के वास्ते अतिरिक्त धन आवंटन का वादा करके लीपापोती और पीएसए को शांत करने का प्रयत्न किया। तथापि, सरकार ने स्थितियों में बदलाव के लिए कुछ नहीं किया, जैसा कि हालिया जीएसटी नोटिस और प्रयोगशाला रसायनों पर सीमा शुल्क वृद्धि (अब वापस ले ली गई) जैसे कृत्यों से जाहिर होता है।

अनुसंधान एवं नवाचार ऐसे वातावरण में पल्लवित हो सकते हैं जहां सरकार अनुसंधान के वास्ते पर्याप्त धन दे, संयुक्त उपक्रम को प्रोत्साहित और पोषित करे, अनुसंधान एवं विकास को बढ़ावा देने के वास्ते उपयुक्त पारिस्थितिकी युक्त तंत्र (विनियमन, कराधान इत्यादि) का निर्माण करे। इन तमाम मोर्चों पर भारत का प्रदर्शन ख़राब रहा है।

अनुसंधान एवं विकास मद में भारत सरकार की फंडिंग बहुत कम है- सकल घरेलू उत्पाद के 1 प्रतिशत से भी कम। बहुप्रचारित ‘अम्ब्रेला रिसर्च फंडिंग एजेंसी’ कही जाने वाली ‘अनुसंधान राष्ट्रीय खोज फाउंडेशन’ (एएनआरएफ), पिछले पांच वर्षों से निर्माणाधीन ही है। बजट भाषणों में सरकार ने नई एजेंसी के लिए पांच वर्षों में 50,000 करोड़ रुपये ‘धन मंजूर करने’ का हवाला देते हुए बार-बार दावा किया है कि उसने अनुसंधान एवं विकास के लिए उपलब्ध धन में काफी वृद्धि की है। ‘धन मंजूर करना’ जुमला भर है क्योंकि इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि सरकारी फंडिंग का अंश केवल 30 प्रतिशत होगा और शेष 70 फीसदी निजी क्षेत्र को अपने तौर पर जुटाना होगा। यदि ऐसा है, तब भारत सरकार का योगदान 3,000 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष से कम बैठता है जो कि विज्ञान क्षेत्र से संबंधित विभागों के मौजूदा बजट से काफी कम है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय को 2024-25 के लिए 16,628 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। एएनआरएफ की स्थापना अनुसंधान एवं विकास का बोझ निजी क्षेत्र पर स्थानांतरित करने का एक स्पष्ट कदम है, लेकिन ऊपरी तौर यह दिखाई नहीं देता।

फंड की कमी के साथ-साथ वैज्ञानिक बिरादरी को लाल फीताशाही का सामना करना पड़ता है, जिसमें शोधकर्ताओं को फंड प्राप्ति, कराधान संबंधी जरूरी प्रक्रिया से निपटना, छात्रवृत्ति और फेलोशिप भत्ते के वितरण में देरी और ‘मेक इन इंडिया’ नियमावली के अनुसार उपकरणों की खरीद जैसी अनिवार्य शर्तों को पूरा करने में जूझना पड़ता है। इस बारे में आईआईटी-कानपुर के एक वैज्ञानिक ने एक्स नामक सोशल मीडिया पर कमेंट किया, ‘यदि आपका सारा समय अन्य कार्यों में खपने वाला है तब आप अनुसंधान पर ध्यान कैसे केंद्रित कर पाएंगे?’ फिर अनुसंधान को प्रभावित करने वाले अन्य कारक भी हैं, मसलन, ऐसे वक्त में जब महत्वपूर्ण क्षेत्र में अनुसंधान मिलकर किया जा रहा हो, वैज्ञानिकों की अंतर्राष्ट्रीय यात्रा के वास्ते फंड पर अंकुश लगा दिया गया है।

पिछले साल, फाउंडेशन फॉर एडवांसिंग साइंस एंड टेक्नोलॉजी (एफएएसटी) ने ‘ईज ऑफ डूइंग साइंस (ईओडीएस)’ -जो कि 2015 में दिए अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा गढ़ा गया नामकरण है– इसके स्तर को मापने के लिए 10 शीर्ष रैंकिंग संस्थानों के शोधकर्ताओं का सर्वेक्षण किया गया। केवल 6 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने ईओडीएस के किसी भी पैमाने को ‘बहुत अच्छा’ दर्जा दिया। अनुसंधान के लिए धन जारी करने वाली एजेंसियों से पावती में आसानी के मामले में इसे ‘औसत से कम’ का दर्जा मिला। अनुसंधान अनुदान के उपयोग की शर्त में आसानी, अंतर्राष्ट्रीय यात्रा के लिए धन मुहैया करवाने के अलावा उपकरणों और संसाधनों की उपलब्धता के विषय में सबसे कम रेटिंग मिली, जबकि समय पर अनुदान प्राप्ति और आवंटन मंजूरी के मामले में रेटिंग औसत के करीब आंकी गई। सर्वेक्षण में पाया गया कि कुल मिलाकर, फंडिंग प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी थी। ‘फास्ट’ नामक अध्ययन के अनुसार, फंडिंग एजेंसियां अक्सर भारत में न तो प्रायोगिक अनुसंधान की जमीनी हकीकतों से वाकिफ हैं, न ही इनको पूरी तरह समझ पाती हैं।

एक अच्छे अनुसंधान एवं विकास पारिस्थितिकी तंत्र का पर्याय है सम्मान, ईनाम और नकद प्रोत्साहन के जरिए व्यक्तिगत एवं संस्थान स्तर की उत्कृष्टता को मान्यता देना। प्रख्यात वैज्ञानिक शांतिस्वरूप भटनागर के नाम पर दिए जाने वाले शीर्ष राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कार की जगह अब नकद राशि बगैर एक गैर-प्रभावशाली एवं चलताऊ ‘विज्ञान पुरस्कार’ बना दिया गया है। 2022 में पिछले विज्ञान पुरस्कारों को बंद करते समय, सरकार ने दावा किया कि नया शीर्ष पुरस्कार– ‘विज्ञान रत्न’–‘नोबेल पुरस्कार की तर्ज पर’ होगा। पिछले सप्ताह प्रथम ‘विज्ञान रत्न’ की घोषणा की गई, लेकिन इसमें नकद राशि का जिक्र नदारद है, तब इसको ‘नोबेल जैसा’ होने के बारे में भूल जाएं। दिलचस्प बात यह है कि कुछ राज्य स्तरीय पुरस्कार जैसे कि उत्तर प्रदेश और हरियाणा द्वारा दिए जाने वाले ‘विज्ञान गौरव’ और ‘विज्ञान रत्न’ (ये इसी नाम वाले राष्ट्रीय पुरस्कार से पुराने हैं) में प्रत्येक की पुरस्कार राशि 5 लाख रुपये है।



जहां इज़ ऑफ डूइंग साइंस सूचकांक में भारत खराब प्रदर्शन से जूझ रहा है, वहीं चीन तेजी से बढ़ रहा है। भारत द्वारा अनुसंधान एवं विकास मद पर जीडीपी के 0.66 प्रतिशत खर्च की तुलना में, चीन अपने अनुसंधान एवं विकास पर सकल घरेलू उत्पाद का 2.4 प्रतिशत खर्च कर रहा है। जैसा कि आईआईटीडी के पूर्व निदेशक वी. रामगोपाल राव ने हाल ही में कहा, ‘केवल दो चीनी विश्वविद्यालयों का बजट हमारे संपूर्ण शिक्षा बजट से अधिक है।’ अपने विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थानों को धन, सुविधाओं एवं मानवबल से महरूम करके, भारत एक विकसित राष्ट्र बनने की आकांक्षा नहीं पाल सकता।

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