बेटियों को मिले समान हक
 इलमा अजीम 
दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुके भारत को आज सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हर क्षेत्र में दुनिया सम्मान की नजर से देखती है। गर्व करने योग्य इन तमाम सुनहरे पहलुओं के बीच जब बालिकाओं को लेकर होने वाले भेदभाव की बातें सामने आती हैं तो चिंता होना स्वाभाविक है। बेटियों की उपेक्षा के साथ जुड़ा यह तथ्य इसलिए भी कष्टकारक है क्योंकि ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ जैसे नारे भी बेटियों को समान अवसर नहीं दिला पा रहे हैं। शिक्षा मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट बताती है कि बालिकाओं को उनका हक दिलाने की दिशा में अभी बहुत कुछ करना बाकी है। जाहिर है, अभिभावकों को भी बेटियों को ज्यादा नहीं तो कम से कम बेटों के बराबर तो रखना ही होगा। आम भारतीय की इस मानसिकता को खत्म करने की जरूरत है जो बेटे को हमेशा बेटी से ऊपर ही रखती आई है। देखा जाता है कि लडक़ा है तो उसे महंगे से महंगे स्कूल में दाखिला दिलाने की होड़-सी मचती है और लडक़ी के लिए सरकारी स्कूल तलाशा जाता है जो उन्हें किताबें, साइकिल और भोजन भी अपनी ओर से उपलब्ध करवा दे। जो अभिभावक लडक़ी का स्कूल खर्च वहन करने से बचने की फितरत रखते हैं, वे मुफ्त में न मिलने वाली महंगी उच्च शिक्षा उसे दिलाएंगे, इसकी उम्मीद कैसे की जा सकती है। नतीजा यह है कि उच्च शिक्षा के अवसर नहीं मिलने पर लाखों लड़कियां घर बैठने के लिए मजबूर हो जाती हैं। तब उनकी प्रतिभा की उड़ान को रोकना बड़ा अन्याय ही कह जाएगा। दुर्भाग्य से भेदभाव की यह दुष्प्रवृत्ति शिक्षा तक ही सीमित नहीं है। बीमारी में लड़कियों को तकलीफ सहते रहने को विवश करने और लडक़े को तुरंत डॉक्टर के पास ले जाने के मामले भी हमारे सामने आते रहते हैं। ये घोर अमानवीय हालात हैं, जो दूर होने चाहिए। सिर्फ कानूनी रूप से समानता का हक देने से सूरत नहीं बदलेगी। हमें अपनी सोच को भी बदलना होगा। इसके लिए सरकारों और समाज दोनों को ही आगे आना होगा।

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