किशोरवय में हिंसा की प्रवृत्ति
इलमा अजीम 
स्कूली बच्चों में हिंसा की प्रवृत्ति न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया में चिंता का गंभीर विषय बनती जा रही है। चिंता इसलिए भी क्योंकि जिस उम्र में बच्चों के मानसिक और सामाजिक विकास की नींव रखी जाती है, उसी उम्र में कई बच्चों में आक्रामकता घर करने लगी है और उनका व्यवहार हिंसक होता जा रहा है। यह दुष्प्रवृत्ति बच्चों के शैक्षणिक प्रदर्शन पर तो नकारात्मक प्रभाव डाल ही रही है, इसे भविष्य में समाज की शांति के लिए बड़ा खतरा भी मानना चाहिए। किशोर अवस्था में ऐसी घटना को अंजाम देने के पीछे बच्चे की मानसिकता का पता लगाना भी जरूरी है। इसमें दो राय नहीं कि किशोरवय में राह भटकने का खतरा ज्यादा रहता है। उम्र के इस पड़ाव पर उनको सही राह दिखाने की जिम्मेदारी परिजन और शिक्षक की ही होती है। आज दोनों ही कहीं न कहीं अपनी जिम्मेदारी से दूर होते नजर आ रहे हैं। स्कूल में केवल किताबी ज्ञान पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। वहीं अर्थप्रधान दुनिया में माता-पिता के पास बच्चों के साथ बिताने के लिए समय ही नहीं बच पा रहा।


 शिक्षकों और परिजनों से संवादहीनता के चलते बच्चों ने मोबाइल फोन और सोशल मीडिया को संवाद का जरिया बना लिया है। किशोरों पर किए गए अध्ययन में पता चला है कि दुनिया भर में 35.8 प्रतिशत से ज्यादा किशोर मानसिक तनाव, अनिद्रा, अकारण भय, पारिवारिक अथवा सामाजिक हिंसा, चिड़चिड़ापन अथवा अन्य कारणों से जूझ रहे हैं। एकाकीपन बढऩे से वे ज्यादा आक्रामक और विध्वंसक सोच की तरफ बढऩे लगे हैं। बच्चों के दिमाग को परिष्कृत करना माता-पिता और शिक्षकों का ही काम है। घर में बच्चों के लिए स्वस्थ, सुरक्षित, और प्रेमपूर्ण वातावरण बनाने के साथ अभिभावकों को अपने बच्चों की ऑनलाइन गतिविधियों पर नजर रखनी चाहिए। स्कूलों में काउंसलर और मानसिक स्वास्थ्य परामर्शदाता की व्यवस्था होनी चाहिए, जो बच्चों की मानसिक समस्याओं को समझें और उनका समाधान कर सकें।



सबसे बड़ी बात यह कि शिक्षकों को बच्चों के आचरण और उनकी समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए प्रशिक्षण देना होगा। ऐसा करने पर वे बच्चों के चाल-चलन की बारीकी से निगरानी कर सकेंगे।

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