बंदूक संस्कृति गंभीर
 इलमा अजीम
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर कातिलाना हमला अमेरिका ही नहीं, दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देशों के लिए एक गंभीर चेतावनी है। हालांकि ऐसे हमले अभूतपूर्व नहीं हैं। अमरीका में चार पदासीन राष्ट्रपतियों-अब्राहम लिंकन, जेम्स गारफील्ड, विलियम मैककिनले, जॉन एफ. कैनेडी-की हत्या तक की जा चुकी है। पांच राष्ट्रपतियों-बिल क्लिंटन, रोनाल्ड रीगन, जेराल्ड फोर्ड, फ्रेंकलिन रुजवेल्ट, थियोडोर रूजवेल्ट-पर भी हमले किए जा चुके हैं। यह कैसा लोकतंत्र और ‘दुनिया का दादा’ देश है, जो दुनिया को लोकतंत्र और मानवाधिकारों के ज्ञान बांटता रहता है, लेकिन जहां ‘बंदूक-संस्कृति’ बिल्कुल सामान्य है। बंदूक बनाने वाले उद्योगपति इतने ताकतवर हैं कि न तो राष्ट्रपति बाइडेन कोई निर्णय ले पाए और न ही ट्रंप और उनकी पार्टी की सोच बंदूक-विरोधी है। जनवरी 6, 2021 की चेतावनी अमेरिका कैसे भूल सकता है, जब ट्रंप-समर्थक भीड़ ने ‘यूएस कैपिटल’ ( यूएस कांग्रेस) पर हमला किया था और अंदर घुस गई थी। उस पर क्या कानूनी कार्रवाई की गई, आज तक स्पष्ट नहीं है। वह अमेरिकी लोकतंत्र और संसद पर सबसे भीषण प्रहार था। लोकतंत्र में भीड़ इतनी हिंसात्मक कैसे हो गई, जबकि उसके मानवाधिकार सुरक्षित हैं? हाल ही में अमेरिका में ‘राजनीतिक हिंसा’ पर एक जनमत किया गया। आश्चर्य है कि 10 फीसदी लोगों ने जवाब ट्रंप के खिलाफ दिया कि ऐसे नेताओं को राष्ट्रपति बनने से रोकने के लिए ऐसा ही बल इस्तेमाल करना न्यायसंगत है। यह भी लोकतंत्र का एक हिस्सा है, लेकिन हिंसा न हो। बहरहाल अमेरिका में ही नहीं, दुनिया के देशों में लोकतंत्र को जिंदा रखना है, तो चुनाव प्रचार का तरीका भी सभ्य होना चाहिए। इस पर गहन चिंतन-मनन, आत्ममंथन किया जाना चाहिए। अमेरिका लोकतंत्र की जननी है। उसका लोकतंत्र प्राचीनतम है, लेकिन वहां बंदूक भी गोली-बिस्कुट और मूंगफली की तरह उपलब्ध है। औसतन हर हाथ में बंदूक, रिवाल्वर है। अमेरिका आत्मरक्षा की दलील देता रहा है, लेकिन लोकतंत्र के साथ-साथ बंदूक-संस्कृति भी जारी है, यह विरोधाभास कैसे ढोया जा रहा है? 

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