पोल खोलता पानी और ढोल बजाता पानी
- कृष्ण कुमार निर्माण
चलिए! वो फिल्मी गाना तो हम सबने सुना ही होगा कि पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिसमें मिला दो, उसके रंग जैसा? अच्छा गाना है और इसका अर्थ और भी ज्यादा अच्छा है। एक और इसी तरह से है कि कवि रहीम ने दोहा लिखा है कि- रहिमन पानी राखियो, बिन पानी सब सून,पानी गयो न उबरै मोती,मानस,चून।पानी की कहानी भी बड़ी अजीब है। जहाँ से चलता है,वहीं आ जाता है, वैसे मानव का जीवन भी पानी के चक्र की कहानी की तरह है,बस फर्क इतना है कि पानी इसे स्वीकार करता है लेकिन मानव स्वीकार नहीं करता।
पानी पर मुहावरे भी अनेकों बने हैं जैसे आँख का पानी मर जाना,घड़ों पानी पड़ना,पानी सूख जाना,पानी-पानी हो जाना,पानी उतर जाना,पानी को पापा कहना आदि-आदि।पानी है साहब,इसके बिना जीना भी मुश्किल होता और पानी-पानी हो जाए,तो फिर बचना भी मुश्किल है।ये पानी ही है जो दोनों काम एक साथ करता है।पानी जहाँ विकास की पोल खोलता है,वहीं पानी विनाश का ढोल भी बजाकर कुछ कहना चाहता है।अब ये समझने वालों के ऊपर है कि वो समझें या नहीं क्योंकि वो एक फिल्मी गाना है ना कि समझ सको तो समझो दिलबर जानी...।
अब दिलबर जानी का पता नहीं समझा या नहीं समझा मगर यह यकीनी तौर पर कहा जा सकता है कि 21वीं सदी का प्रगतिशील इंसान कतई नहीं समझा है।वैसे बात समझ की चली है तो,इसी समझ से एक बात समझ में आई कि आजकल ये जो समझ नाम की चिड़िया है,इसे तो मोबाइल और कम्प्यूटर खा गया है और अब समझ बची नहीं है।यों समझ लो कि समझ गधे की सींग की तरह लुप्त हो चुकी है या फिर गौरेया चिड़िया की तरह लुप्तप्रायः है। वो गाना है कि कोई तो जाए, ढूंढ के लाए, इधर-उधर।
खैर,बात पानी की हो रही थी और समझ पर आ गई। वैसे पानी पर चली बात कहीं पर भी आ-जा सकती हैं। अब देखिए ना,कल तक पानी-पानी चिल्लाने वाली दिल्ली अब खुद पानी-पानी हो रही और इतनी पानी-पानी हो गई कि अब पानी निकालना मुश्किल हो रहा है और पहले मांगना मुश्किल हो रहा था। ये पानी ही है जिसने दिल्ली की बड़ी और छोटी सरकार के विकास के तमाम तरह के दावों की पोल खोलकर रख दी।अब इधर मानसून के आने की आहट क्या हुई कि उस आहट से पहले मानसून ने अपना ट्रेलर दिखाया मगर ये क्या ट्रेलर ने ही पूरे देश के तमाम छोटे-मोटे शहरों/गांवों के विकास की हवा सरका दी और सारे शहर पानी-पानी हो रहे हैं।कोई पानी को निकालने वाला ही नहीं मिल रहा जी।
आखिर निकासी करें भी तो कैसे क्योंकि निकासी करने के लिए आपके खाते में कुछ ना कुछ होना भी तो चाहिए।खाते में बिना कुछ हुए बैंक वाला बाबू धक्के देकर बाहर निकाल सकता है।यह तो बात रही विकास की,जो जरा-सी बारिश में हवा-हवाई हो जाता है।लेकिन पानी विनाश का ढोल बजाकर भी मानव जगत की आगाह कर रहा है कि अभी वक्त है,संभल जाओ,वरना बहुत पछताओगे क्योंकि जब पानी होगा ही नहीं,तो जिंदगी की कल्पना करना भी बेमानी होगा?
इसलिए समझिए संकेत को,जो पानी ढोल बजाकर कह ही नहीं रहा बल्कि चीख-चीखकर बता रहा है। और हाँ,पानी से खेलना बंद कर दीजिए वरना यही पानी इंसान का खेला करने की पूरी कुवत रखता है।चलिए!आजकल कौन किसका मानता है साहब? एक फ़िल्म में गाना है कि मैं चाहे ये करूँ,मैं चाहे वो करूँ, मेरी मर्जी?पर बरखुरदार यह मन की मर्जी महंगी भी पड़ सकती है।
No comments:
Post a Comment