अवसरवादी राजनीति
इलमा अजीम
देश में लंबे समय से चुनाव सुधारों पर चर्चा चल रही है लेकिन चर्चा इस पर भी होनी चाहिए कि दलबदल का बढ़ता दौर कैसे रूके। राजनीति एवं राजनेताओं में नीति एवं सिद्धान्तों की बात प्रमुख होनी चाहिए लेकिन ऐसा न होना लोकतंत्र की बड़ी विसंगति है। खासतौर से कांग्रेस में लगातार वफादार नेताओं का पलायन जारी है, नये नामों में कांग्रेस के प्रवक्ता गौरव वल्लभ, महाराष्ट्र के जिम्मेदार एवं पूर्व मुंबई कांग्रेस अध्यक्ष संजय निरुपम, बिहार कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अनिल शर्मा, निशाना साधने वाले मुक्केबाज विजेंदर, आचार्य प्रमोद कृष्णम हैं, जिन्होंने कांग्रेस को बाय-बाय कर दी है। इन सभी ने कांग्रेस के मुद्दाविहीन होने, मोदी के विकसित भारत के एजेंडे, राहुल गांधी की अपरिपक्व राजनीति एवं कांग्रेस की सनातन-विरोधी होने को पार्टी से पलायन का कारण बताया है। कुछ भी कहे, यह राजनीति में अवसरवाद का उदाहरण है, इस तरह का बढ़ता दौर चिंताजनक है। भारत की राजनीति में दलबदल की विसंगति एवं विडम्बना आजादी के बाद से लगातार देखने को मिलती रही है। एक बात यह भी कास है कि कल तक विपक्ष में जो नेता दागी होते थे, सतारूढ़ दल में शामिल होने के बाद ऐसा क्या हो जाता है कि उनके दाग दाग नहीं रहते। राजनीति में निष्ठाएं बदलने की स्थितियां आम नागरिकों को उद्वेलित कर रही हैं कि आखिर ऐसा क्या हो जाता है कि दागी नेता सत्ता की धारा में डुबकी लगाकर दूध का धुला घोषित हो जाता है। विभिन्न दलों के प्रभावी नेताओं को अपने दल में शामिल कराने की होड़ मची है, कभी कोई एक दल बाजी मारती हैं तो कभी कोई दूसरा दल। सभी सेलिब्रिटी आखिर सत्ता की तरफ ही क्यों भागते हैं? पूर्व न्यायाधीश हो, पूर्व अधिकारी हो, अभिनेता हो या खिलाड़ी राजनीति में अपना भविष्य आजमाते रहे हैं। निश्चिय ही यह स्थिति किसी लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिये शुभ नहीं कही जा सकती। देश में लंबे समय से चुनाव सुधारों पर चर्चा चल रही है लेकिन चर्चा इस पर भी होनी चाहिए कि दलबदल का बढ़ता दौर कैसे रूके। राजनीति एवं राजनेताओं में नीति एवं सिद्धान्तों की बात प्रमुख होनी चाहिए लेकिन ऐसा न होना लोकतंत्र की बड़ी विसंगति है।
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