सरकार की उदासीनता
 इलमा अजीम 
यह जानते हुए भी कि प्रकृति के साथ इंसानी क्रूरता से उपजे ग्लोबल वार्मिंग संकट ने हमारे दरवाजे पर दस्तक दे दी है, हमारी सरकारें इस गंभीर चुनौती के मुकाबले को लेकर उदासीन नजर आती हैं। आज दुनिया में हर साल करोड़ों लोगों को अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सूखे, बाढ़ व चक्रवातों की वजह से विस्थापन का दंश झेलना पड़ रहा है। विकसित देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन पर बड़े सम्मेलनों के आयोजन के अलावा इस संकट से निपटने के लिये युद्धस्तर पर कोई कोशिश होती नजर नहीं आती। सिर्फ जुबानी जमाखर्च के अलावा कोई ठोस पहल विकसित व विकासशील देशों के स्तर पर अब तक नहीं हुई है। सरकारों को जलवायु अनुकूल नीतियों को लागू करने में दृढ़ इच्छाशक्ति दिखानी होगी। साथ ही सरकारों को जवाबदेह बनाने वाले सार्वजनिक दबाव व नागरिक सक्रियता को गंभीरता से लेने की जरूरत है। निस्संदेह नागरिकों की जागरूकता को कमतर नहीं आंका जा सकता। जाहिर बात है कि यदि लाखों लोगों के जीवन की गुणवत्ता व प्रत्याशा को जलवायु संकट बुरी तरह प्रभावित कर रहा हो तो सरकारें कैसे उदासीन बनी रह सकती हैं। तमाम अध्ययनों से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन से जहां हमारी खाद्य शृंखला खतरे में है, वहीं तमाम तरह के नये-नये घातक रोग सामने आ रहे हैं। जिनसे निपटने के लिये तत्काल कदम उठाने की जरूरत है। हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक फैसले में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से जीवन रक्षा को हमारे संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखा था। कोर्ट ने माना था कि जलवायु परिवर्तन का असर सीधा जीवन के अधिकार पर पड़ता है। अदालत ने एक फैसले में कहा था कि जलवायु परिवर्तन के हानिकारक प्रभावों से बचने के लिये नागरिकों के अधिकारों की दृष्टि से स्वच्छ ऊर्जा के उपयोग को प्राथमिकता देने पर बल दिया जाना चाहिए। निश्चित रूप से यूरोपीय मानवाधिकार न्यायालय का फैसला यूरोपीय व अमेरिकी देशों की जलवायु नीतियों को भी नया आकार प्रदान करने में सहायक होगा। यह फैसला जलवायु परिवर्तन और मानवाधिकारों के अंतर्संबंध को प्रदर्शित करते हुए बताता है कि पर्यावरणीय संकट के कारण हाशिये पर आने वाले समुदायों को तत्काल संरक्षण प्रदान करने की जरूरत है। 

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