परिवार में संतुलन जरूरी
इलमा अजीम 
परम पिता परमेश्वर ने जब सृष्टि की रचना की तो अपनी अलौकिक शक्ति व दिव्य दृष्टि से प्रत्येक कमी को जांचा-परखा और प्राणियों में एक ऐसा संतुलन बनाया जिससे सभी प्रकार के प्राणी एक-दूसरे के पूरक बनकर आनंदमय जीवन व्यतीत कर सकें। जब बचपन के बाद जवानी और बुढ़ापा आया तो उन्हें लगा कि जवानी तो स्वयं ही फौलाद होगी जो सबको संभालेगी पर बुढ़ापा कुरूप, निर्बल, मृत्यु की कगार पर डगमगाता सा एक पेड़ जिसके सभी पत्ते और शाखाएं थक कर और सूख कर गिरने वाले होंगे, उसे भी सहारा चाहिए। तो वृद्धावस्था को सुरक्षित रखने के लिए बचपन और बुढ़ापे में एक संतुलन बनाया गया। अंत में वैसे भी वृद्धों के मन बच्चों की तरह हो जाते हैं और वे घर में रहकर बच्चों को संभाल सकते हैं, क्योंकि बच्चे कोमल और वृद्ध निर्बल होते हैं। परिवार में बुजुर्गों को सम्मान दिया गया। बच्चों के माता-पिता बुजुर्गों का सम्मान करते और बुजुर्ग अपने अनुभवों और ज्ञान को साझा कर अगली पीढ़ी को जीना और कार्य करना सिखाते थे। नई पीढ़ी भी उनकी सेवा और आज्ञापालन करना अपना कत्र्तव्य समझती थी और बच्चों को भी यह सिखाया जाता था। मां-बाप अपने बच्चों को बुजुर्गों के पास सौंप कर निश्चिंत होकर घर अंदर-बाहर के कार्य करने निकल पड़ते थे। मगर अब किसी परिवार में बुजुर्ग हैं भी तो किसी के भी पास उनके साथ बैठने के लिए समय नहीं है। बच्चों को उनके पास बैठने से मां-बाप मना करते हैं कि वृद्ध उन्हें आधुनिक बातें नहीं सीखा पाएंगे और हमारे बच्चे पिछड़ जाएंगे। उनके मां-बाप भी वृद्धों को यही कहकर चुप करा देते हैं कि आपको आधुनिक ज्ञान नहीं है। हमें आपसे ज्यादा ज्ञान है। जैसे घर में पड़े पुराने सामान को कबाड़ी को बेच दिया जाता है, ऐसे ही वृद्धों को वृद्धाश्रमों में छोड़ा जा रहा है, जहां वे अपने परिवार के लिए खून के आंसू रोते हैं। यहां तक कि उनके क्रिया-कर्म को भी उनकी संतान के पास समय नहीं है। यौवन के नशे में चूर उनकी संतानें यह क्यों नहीं समझती कि ये वृद्ध भी कभी उनकी तरह बलशाली जवान थे, पर जवानी में फौलाद सा शरीर एक दिन बुढ़ापे की जंग लगकर जर्जर हो जाएगा, तब उन्हें भी सहारे की आवश्यकता होगी। इस बात को भी क्यों नहीं सोच पाते कि हम भी कभी बुजुर्ग होंगे, तब हमारे बच्चे भी हमारा अनुकरण करते हुए हमारे साथ भी वही व्यवहार करेंगे जो हमने अपने बुजुर्गों के साथ किया है। हर बुजुर्ग के पास अपने कुछ ऐसे अनुभव और सीख होती है जो कि गूगल में भी नहीं मिलती। एकल परिवार में अकेलेपन के शिकार बच्चे कई प्रकार की मानसिक विकृतियों का शिकार हो रहे हैं। बुजुर्ग अपने संघर्ष के बारे में जो बताते थे तो बच्चे प्रोत्साहित होते थे और विषम से विषम परिस्थितियों को संभालने की क्षमता रखते थे।  तो क्यों न आधुनिकता और सोशल मीडिया के भीड़ भरे बाजार में बिखरती बचपन की कोमल शाखाओं को वृद्धों की छत्रछाया में रखकर, उनके प्यार के सागर से सींचकर उनके सर्वांगीण विकास के साथ एक बलशाली तन-मन, मस्तिष्क के साथ राम, लक्ष्मण, अर्जुन, युधिष्ठिर जैसी बहादुर पीढ़ी का अवतरण किया जाए, जिनके संस्कारों की छत्रछाया में न जाने कितने लोगों को आश्रय देने की क्षमता हो।

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