हकीकत भी स्वीकारें किसान
इजमा अजीम
किसान आंदोलन के तौर-तरीकों व सरकारों की कारगुजारियों को लेकर पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने हालिया जो तल्ख टिप्पणियां की हैं, वे आंख खोलने वाली हैं। हरियाणा-पंजाब की सीमा पर विगत तीन सप्ताह से मोर्चा संभाले किसान आंदोलनकारियों के तौर-तरीके व उससे निपटने के सरकारों द्वारा उठाये गए कदम मर्यादित व्यवहार पर नये विमर्श की जरूरत बताते हैं। यह सर्वविदित है कि किसानों की दिल्ली कूच की कोशिशों और पुलिस प्रशासन की उन्हें रोकने के प्रयास में लगातार टकराव की खबरें आती रही हैं। जिनमें कई किसानों, पुलिसकर्मियों व अधिकारियों के घायल होने की भी बात कही गई। एक युवक की मौत की अप्रिय घटना भी सामने आई है। जिसको लेकर हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी भी सामने आई। निस्संदेह, यह घटनाक्रम परेशान करने वाला है और इससे आवागमन बाधित होने से आम लोगों को भी भारी परेशानियों का सामना करना पड़ा है। दोहराने की आवश्यकता नहीं है कि लोकतंत्र में हर किसी व्यक्ति को लोकतांत्रिक ढंग से अपनी मांगें उठाने का अधिकार है। सरकारों का भी दायित्व बनता है कि समय रहते किसी भी संगठन या वर्ग की न्यायोचित मांगों पर गंभीरता से विचार करें ताकि आंदोलनकारियों को सड़कों पर उतरने की जरूरत न पड़े। वहीं आंदोलनकारियों की जिम्मेदारी बनती है कि न्यायसंगत मांगों को लेकर आंदोलन तो करें, लेकिन आम लोगों की सुविधा व अधिकारों का ध्यान रखे। निस्संदेह, किसी भी व्यक्ति को लोकतांत्रिक आंदोलन करने व अभिव्यक्ति के अधिकार हैं। लेकिन किसी को निरंकुश व्यवहार की अनुमति नहीं दी जा सकती। साथ ही किसी आंदोलन की वजह से लंबे समय तक राष्ट्रीय राजमार्गों को भी अवरुद्ध नहीं किया जा सकता। कोर्ट की वह टिप्पणी विचारणीय है जिसमें बच्चों को आंदोलन के दौरान ढाल बनाने को पंजाब की संस्कृति के विपरीत बताया गया है। अदालत ने प्रश्न उठाया है कि किसान आंदोलन कर रहे हैं या जंग पर जा रहे हैं? कोर्ट ने खरी-खोटी सुनाते हुए कहा कि क्या हथियार लहराने वाले आंदोलन को शांतिपूर्ण कहा जा सकता है? उल्लेखनीय है कि पंजाब-हरियाणा सीमा पर एमएसपी पर कानूनी गारंटी की मांग को लेकर गत तेरह फरवरी से किसान आंदोलनरत हैं। जिसमें बड़ी संख्या में महिलाओं व बच्चों की भी भागीदारी रही है। गत इक्कीस फरवरी को खनौरी बॉर्डर पर टकराव के दौरान बठिंडा के युवक शुभकरण की मौत हो गई थी। अब अदालत ने मामले में न्यायिक जांच के आदेश दिये हैं। बहरहाल, अदालत की सख्त टिप्पणियों के बाद किसान आंदोलनकारियों व सरकारों को अपनी रीति-नीतियों पर मंथन करना चाहिए।
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