सीएए की तार्किकता
इलमा अजीम
लोकसभा चुनाव से पूर्व आचार संहिता लागू होने से ठीक पहले पूरे देश में नागरिकता संशोधन अधिनियम यानी सीएए को लागू करने के भले ही राजनीतिक निहितार्थ बताए जा रहे हों, लेकिन पड़ोसी देशों में धार्मिक उत्पीड़न के चलते भारत लौटे हजारों लोगों के लिये यह न्यायपूर्ण नागरिकता ही है। भले ही सीएए को हकीकत में बदलने में चार साल से अधिक का समय लग गया हो मगर यह कदम अपना सब कुछ गवां कर लौटे लोगों के सपने सच होने जैसा है। उनकी स्थिति असमंजस के चलते कष्टदायक बनी हुई थी। नये कानून के प्रावधानों के अनुसार अब पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश में अल्पसंख्यक के रूप में सताये गए हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी आदि लोगों को भारत आने पर नागरिकता मिलने में आसानी होगी। दरअसल, नागरिकता अधिनियम 1955 के अनुसार भारत में नागरिकता पाने के लिये देश में ग्यारह साल तक रहना जरूरी था। अब यह अवधि घटाकर छह वर्ष कर दी गई है। उल्लेखनीय है कि जब 2019 में नागरिकता संशोधन अधिनियम को संसद की मंजूरी मिली थी तो भ्रम व राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते खासा विवाद हुआ था। दरअसल, व्याख्या की गई थी कि यह देश के अल्पसंख्यकों की नागरिकता पर संकट लाने वाला कदम है। केंद्र सरकार भी विरोधियों को यह समझाने में सफल नहीं हो सकी कि यह कानून किसी की नागरिकता छीनने वाला नहीं बल्कि पड़ोसी देशों में उत्पीड़न के बाद पलायन करने वाले भारतीय लोगों को न्यायपूर्ण नागरिकता देने के लिये है। लेकिन इस मुद्दे पर जमकर हुई राजनीति का शोर इतना प्रबल था कि सीएए के मुद्दे पर अनपेक्षित विवाद पैदा हुआ। दिल्ली में इसके विरोध में लंबा आंदोलन चला। जो कालांतर हिंसक टकराव में भी तब्दील हुआ। बहरहाल, सीएए को देश में लागू करके भाजपा ने अपने लक्षित वर्ग को यह विश्वास दिलाया कि उसने अपने कोर एजेंडे में शामिल अधिकांश मुद्दों को मूर्तरूप दे दिया है। ठीक चुनाव से पहले इसका क्रियान्वयन इसी ओर इशारा भी करता है। बहरहाल, वर्षों से भारत आकर नागरिकता की प्रतीक्षा कर रहे उन हजारों लोगों ने राहत की सांस ली होगी, जो लंबे समय से नागरिकता हासिल करने के लिये सरकारी दफ्तरों के चक्कर काट रहे थे। इन लोगों के पास दुनिया में कहीं दूसरा ठौर-ठिकाना भी नहीं था। बहरहाल, पड़ोसी देशों में विभाजन की विसंगतियों तथा उन देशों में बहुसंख्यक समाज की असहिष्णुता ने ऐसे हालात पैदा कर दिये थे कि धार्मिक अल्पसंख्यकों के पास भारत आने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। अब सीएए के विरोधी भी विरोध की तार्किकता पर अपनी बात रख सकते हैं। लेकिन साथ ही सत्ता पक्ष का दायित्व भी है कि सीएए को लेकर कुछ वर्गों में जो आशंकाएं हैं, उनका भी निराकरण समय रहते किया जाए।
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