बर्बादी न रोकी तो बेपानी हो जायेगा देश
- पंकज चतुर्वेदी
दिल्ली एनसीआर के कई इलाकों को इस बात के लिए गर्व से प्रचारित किया जाता है कि वहां घरों में गंगा-वॉटर आता है। ऐसे इलाकों में फ्लैट के दाम इसी कारण अधिक होते हैं। जिस गंगा जल को घरों में एक बोतल में पवित्र निशानी के तौर पर पूजा-स्थान पर रखा जाता है, वह गंगा जल लाखों घरों में शौचालय से लेकर कपड़े धोने तक में इस्तेमाल होता है। ‘हर घर जल’ जैसी योजनाओं के बावजूद सरकारी दस्तावेज यह मानते हैं कि अब भारत के कोई 360 जिलों में पानी की मारामारी स्थाई डेरा डाल चुकी है। एक तरफ बढ़ती गर्मी और दूसरी तरफ बढ़ती प्यास और खेतों के लिए अधिक पानी की जरूरत, इसके साथ ही साल दर साल बरसात के दिनों में कमी अा रही है। जाहिर है कि पानी किसी कारखाने में बन नहीं सकता और हमारी जिम्मेदारी बन गई है कि पानी को किफायत से खर्च करें। मौका मिले इसे सहेज कर रखें।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का एक शोध चार साल पहले ही चेतावनी दे चुका है कि सन‍् 2030 तक हमारे धरती के तापमान में 0.5 से 1.2 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि अवश्यंभावी है। जान लें कि तापमान में एक डिग्री बढ़ोतरी का अर्थ है कि खेत में 360 किलो फसल प्रति हेक्टेयर की कमी आ जाना। इस तरह जलवायु परिवर्तन के चलते खेती के लिहाज से 310 जिलों को संवेदनशील माना गया है। इनमें से 109 जिले बेहद संवेदनशील हैं जहां आने वाले एक दशक में ही उपज घटने, पशु धन से लेकर मुर्गी पालन व मछली उत्पाद तक कमी आने की संभावना है।
सामने दिख रहा है कि संकट अकेले पानी का ही नहीं है, असल संकट है पानी के प्रबंधन का। अलग-अलग किस्म का पानी, अलग-अलग इस्तेमाल के लिए कैसे छांटा जाए, इस बारे में तंत्र विकसित करना और सबसे बड़ी बात इसके लिए जागरूकता फैलाना अनिवार्य है। खासकर ग्रामीण अंचल में यह बात समझाना जरूरी है कि भूगर्भ से उलीच कर निकाला जा रहा पानी अनंत नहीं है और यह एक बार समाप्त हुआ तो लौट कर आने वाला नहीं है।
भारत में जिस साल कम बरसात होती है, उस साल भी इतनी कृपा बरसती है कि सारे देश की जरूरत पूरी हो सकती है, लेकिन हमारी असली समस्या बरसात की हर बूंद को रोक रखने के लिए हमारे पुरखों द्वारा बनाए तालाब-बावड़ी या नदियों की दुर्गति होना भी है। बारिश कुछ हिस्सा तो भाप बनकर उड़ जाता है और कुछ समुद्र में चला जाता है। हम यह भूल जाते हैं कि प्रकृति जीवनदायी संपदा यानी पानी हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है और इस चक्र को गतिमान रखना हमारी जिम्मेदारी है। इस चक्र के थमने का अर्थ है हमारी जिंदगी का थम जाना। प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते हैं उसे वापस भी हमें ही लौटाना होता है।
पानी के दुरुपयोग के बारे में एक नहीं, कई चौंकाने वाले तथ्य हैं जिसे जानकर लगेगा कि सचमुच अब हममें थोड़ा-सा भी पानी नहीं बचा है। कुछ तथ्य इस प्रकार हैं-मुंबई में रोज गाड़ियां धोने में ही 50 लाख लीटर पानी खर्च हो जाता है। दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों में पाइपलाइनों के वॉल्व की खराबी के कारण 17 से 44 प्रतिशत पानी प्रतिदिन बेकार बह जाता है। ब्रह्मपुत्र नदी का प्रतिदिन 2.16 घन मीटर पानी बंगाल की खाड़ी में चला जाता है। भारत में हर वर्ष बाढ़ के कारण करीब हजारों मौतें व अरबों का नुकसान होता है।
यह भी कड़वा सच है कि हमारे देश में महिलाओं को पीने के पानी के जुगाड़ के लिए हर रोज ही औसतन साढ़े पांच किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। पानीजन्य रोगों से विश्व में हर वर्ष 22 लाख लोगों की मौत हो जाती है। पूरी पृथ्वी पर एक अरब 40 घन किलोलीटर पानी है। इसमें से 97.5 प्रतिशत पानी समुद्र में है जोकि खारा है, शेष 1.5 प्रतिशत पानी बर्फ के रूप में ध्रुवीय क्षेत्रों में है। बचा एक प्रतिशत पानी नदी, सरोवर, कुआं, झरना और झीलों में है जो पीने के लायक है। इस एक प्रतिशत पानी का 60वां हिस्सा खेती और उद्योगों में खपत होता है। बाकी का 40वां हिस्सा हम पीने, भोजन बनाने, नहाने, कपड़े धोने एवं साफ-सफाई में खर्च करते हैं।
यदि ब्रश करते समय नल खुला रह गया है तो पांच मिनट में करीब 25 से 30 लीटर पानी बरबाद होता है। बॉथ टब में नहाते समय धनिक वर्ग 300 से 500 लीटर पानी गटर में बहा देते हैं। मध्यम वर्ग भी इस मामले में पीछे नहीं है जो नहाते समय 100 से 150 लीटर पानी बर्बाद कर देता है। हमारे समाज में पानी बर्बाद करने की राजसी प्रवृत्ति है, जिस पर अभी तक अंकुश लगाने की कोई कोशिश नहीं हुई है।



यदि अभी पानी को सहेजने और किफायती इस्तेमाल पर काम नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब सरकार की हर घर नल जैसी योजनाएं जल-स्रोत न होने के कारण रीती दिखेंगी। चप्पे-चप्पे पर झील-तालाबों के लिए मशहूर बंगलूरु का उदाहरण सामने है, जहां गर्मी शुरू होने से पहले ही पानी की राशनिंग हो रही है। जान लें, पानी की कमी, मांग में वृद्धि तो साल-दर-साल ऐसी ही रहेगी। यह जागने का वक्त है।

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