बढ़ रही है देश में कुपोषण की समस्या
- सतीशचंद्र शुक्ला सत्पथी
हाल ही में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिकों द्वारा प्रकाशित शोध में बताया गया है कि धान और गेहूं में आयरन और जिंक जैसे सूक्ष्म खनिज पोषक तत्वों में कमी और विषाक्त तत्वों में वृद्धि हो रही है। शोध में देश के प्रमुख खाद्यान्न में खनिज पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ाने से संबंधित आनुवंशिक लक्षणों की उपेक्षा के कारण आवश्यक खनिजों में भारी गिरावट दर्ज की गई है। इससे हरित क्रांति के दौरान फसल प्रजनन अनुसंधान से विकसित अर्ध बौनी और उच्च पैदावार वाली फसलों पर सवालिया निशान खड़े हो गए हैं। इसके विपरीत, शोध ने अनाजों में विषाक्त तत्वों जैसे कि आर्सेनिक और एलुमिनियम के बढ़ते अवशेषों की तरफ ध्यान आकर्षित किया गया हैं। देश में बढ़ते कुपोषण एवं बीमारियों पर चिंता जाहिर करते हुए इस शोध ने 2040 तक भारतीय आबादी में आयरन और अन्य पोषक तत्वों की कमी से होने वाले एनीमिया, सांस, हृदय और मस्कुलोस्केलेटल जैसे नॉन कम्युनिकेबल रोगों के बढऩे के संकेत दिए गए हैं।
इसमें कोई शक नहीं है कि पिछले पांच दशकों में बढ़ती आबादी के भरण-पोषण की चुनौती से निपटने के लिए कृषि उत्पादन में जोरदार बढ़ोतरी दर्ज हुई है। भरपूर पैदावार के लिए वैज्ञानिक अनुसंधान, अधिक उपज वाली अद्र्ध बौनी धान और गेहूं की फसलों का विकास और आधुनिक प्रजनन जैसी तकनीक का भरपूर उपयोग किया गया। इस शोध का प्रकाशन तब हुआ है, जब देश में अपार खाद्य उत्पादन और अनाज से भरे भंडारों के बावजूद कुपोषण की समस्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। देश के ज्यादातर लोग कुपोषण और खराब स्वास्थ्य से जूझ रहे हैं। भारत, दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषित देशों की श्रेणी में प्रथम स्थान पर है।एफएओ ने हाल ही जारी ‘खाद्य सुरक्षा और पोषण का क्षेत्रीय अवलोकन 2023’ रिपोर्ट में कहा है कि 2021 में तकरीबन 74.1 प्रतिशत भारतीय कम आमदनी की वजह से स्वस्थ आहार लेने में असमर्थ रहे। यही नहीं, हमारे देश में आज भी तकरीबन 80 करोड़ लोगों को भोजन का वितरण खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत किया जा रहा है।
ये आंकड़े चौंकाने वाले तो हैं ही,देश की कृषि नीतियों, कृषि अनुसंधान और फसल प्रजनन में बेहद कम निवेश, उर्वरको के गलत उपयोग, खराब होती मृदा और दूषित जल के खाद्य पदार्थों और मानव स्वस्थ पर पडऩे वाले सीधे प्रभाव को उजागर करते हैं। हालांकि इस शोध का दायरा धान और गेहूं तक सीमित था और पॉट परीक्षण के माध्यम से खनिज पोषक तत्वों के अवशोषण का अध्ययन किया गया। चूंकि पौधे खनिज पोषक तत्वों का अवशोषण मृदा और जल से करते हैं। शोध परिणामों को पौधे की आनुवंशिक पाथवेज और मेटाबोलिक सिस्टम से सीधे जोडऩा कम व्यावहारिक लगता हैं। अगर ऐसा होता तो पौधे विषाक्त तत्वों जैसे कि आर्सेनिक और एलुमिनियम के बढ़ते अवशेषों को कैसे अवशोषित कर रहे हैं। इन परिणामों का सत्यापन किसानों के खेतों में करने की आवश्यकता है।
असल में फसल पोषण एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण और जटिल विषय है जिसे हमने नजरअंदाज किया है। फसल पोषण के मामले में लापरवाही का मूल कारण 1985 का कानून ‘उर्वरक (अकार्बनिक, जैविक या मिश्रित) (नियंत्रण) आदेश’, एफसीओ है, जिसके तहत फसल उर्वरकों के उत्पादन, भण्डारण, वितरण, बिक्री, सब्सिडी और बाजार कीमत का नियंत्रण भारत सरकार के पास है। इस नियम के तहत, भारत सरकार फसल पोषण के वृहत (मैक्रो) न्यूट्रिएंट जैसे कि नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश के अलावा अन्य किसी सूक्ष्म (माइक्रो) पोषक तत्वों पर अनुदान नहीं देती और न ही प्रोत्साहन देती। परिणामस्वरूप, सस्ती दरों पर उपलब्ध यूरिया का भरपूर उपयोग हो रहा है, जिसका फायदा तो हुआ पर दूसरे पोषक तत्वों की बहुत कमी हो गई। इसी कमी को पूरा करने के लिए, भारत सरकार ने अप्रेल 2010 से उर्वरकों में तथाकथित पोषक तत्व-आधारित सब्सिडी (एनबीएस) व्यवस्था शुरू की ताकि फास्फोरस और पोटाश के नए उर्वरक किसानों को सस्ते दाम पर उपलब्ध हों। इसके पश्चात, भारत सरकार ने 2015 में राष्ट्रीय उर्वरक नीति के तहत 100 प्रतिशत नीम लेपित यूरिया का प्रचलन शुरू किया ताकि यूरिया में उपलब्ध नाइट्रोजन ज्यादा समय तक फसलों को मिल सके और मृदा और वायु प्रदूषण को रोका जा सके।
एफसीओ के अंतर्गत उर्वरक नियंत्रण के कारण सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों में उर्वरकों पर कोई विशेष अनुसंधान, नवाचार और प्रभावशाली उर्वरक उत्पादों का विकास नहीं हुआ। भारतीय कृषि और खाद्य पोषण मैक्रो न्यूट्रिएंट एनपीके के ‘एकतरफा’ नीति-नुस्खे का शिकार हैं, जिस पर भारी सब्सिडी दी जाती है और इसका अत्यधिक उपयोग न तो किसान के हित में है और न ही मृदा और पर्यावरण के। उर्वरकों पर बना 1985 का कानून एफसीओ ही भोजन में बढ़ती पोषक तत्वों की कमी का मुख्य कारण हैं।
भारत की जनता में कुपोषण के बढ़ते खौफ से तभी निजात मिलेगी जब उर्वरकों के संतुलित उपयोग के जरिए मृदा में सूक्ष्म पोषक तत्वों की मात्रा घटने से रोका जाएगा।। मृदा सुधार और मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी को पूरा करने के लिए एक बड़ी योजना शुरू करने की जरूरत है। इसका पहला पड़ाव उर्वरकों पर बना 1985 का कानून एफसीओ को खत्म कर मैक्रो और माइक्रो पोषक तत्वों पर एक व्यापक कानून बनाने की जरूरत है। ऐसा कानून जो उर्वरकों में नवाचार और नए उत्पादों का प्रोत्साहन कर नाइट्रोजन उपयोग दक्षता (एनयूई) को बढ़ाने, लीचिंग और भूजल प्रदूषण को कम करने, नाइट्रीकरण को रोकने, पोषक तत्वों से मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार और सूक्ष्म खनिज पोषक तत्वों से उपचारित यूरिया उपलब्ध कराई जा सके।
नए कानून से उर्वरकों के संतुलित उपयोग को बढ़ावा मिलेगा ताकि मिट्टी की उर्वरता में सुधार हो सके, मृदा में सूक्ष्म खनिज पोषक तत्वों की उपलब्धता और पौधों द्वारा सूक्ष्म खनिज तत्वों का अवशोषण बढ़ाया जा सके। इसके अलावा, जैव संवर्धित बायोफोर्टिफाइड तकनीक से विकसित फसलों को उपभोक्ताओं तक पहुंचाने पर काम करने की आवश्यकता है। इस तरह की फसलों का अलग से भण्डारण कर किसानों को बाजार में उचित मूल्य दिलाया जाए। यूरिया का भरपूर उपयोग हो रहा है, जिसका फायदा तो हुआ पर दूसरे पोषक तत्वों की बहुत कमी हो गई।
(वरिष्ठ पत्रकार, जौनपुर)
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