श्रीराम के कोप की सामाजिक उपयोगिता
- टीकेश्वर सिन्हा " गब्दीवाला "
मध्यकालीन सगुनभक्ति धारा के राममार्गी शाखा के सर्वोत्तम कवि गोस्वामी तुलसीदास जी की कालजयी रचना "रामचरितमानस" विश्वसाहित्य की उत्कृष्ट रचनाओं में से एक है। राम, चरित व मानस जैसे त्रयपावन शब्दों से निर्मित महाकाव्य रामचरितमानस में न केवल भारतवर्ष; अपितु सारे जगत का अस्तित्व समाया हुआ है। विभिन्न छंदों से आबद्ध, अलंकारों से सुसज्जित व शब्दशक्ति-गुणों से परिपूर्ण यह सरस महाकाव्य रामचरितमानस समस्त मानवीय मूल्यों के दृष्टिकोण से एक अतुलनीय रचना है।


गोस्वामी तुलसीदास जी के महाकाव्य रामचरितमानस के प्रमुख पात्र श्रीराम के मानवीय गुणों के आधार पर काव्यग्रंथ की  संज्ञा सार्थक है। स्वयं तुलसीदास जी ने अपने इस काव्य में श्रीराम के चरित्र के प्रति अपना मनतव्य रख उन्हें एक महानायक के रूप में चित्रित किया है। राम के सद्गुणों पर उन्होंने  विभिन्न सात सोपान- बालकाण्ड , अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड , सुंदरकाण्ड, लंकाकाण्ड उत्तरकाण्ड के जरिए अपना विचार रखा है। पूरे महाकाव्य रामचरितमानस में श्रीराम एक आदर्शपुत्र व आज्ञापालक शिष्य से लेकर एक महान-आदर्श नरेश के रूप में वर्णित हैं।
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में श्रीराम की पात्रतानुसार मर्यादा का संदेश दिया है। सहजता, सादगी, व कर्त्तव्यपरायणता श्रीराम की प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ रही हैं। लेकिन पूरे काव्य में श्रीराम ने स्वयं को कहीं पर भी ईश्वर घोषित नहीं किया है; बल्कि वे अपने कर्मों के चलते जनमानस में ईश्वर निरूपित हुए हैं। इस पावन ग्रंथ में श्रीराम ने हर युद्ध के पूर्व शांति स्थापित करने का प्रयास किया है; और युद्धोपरांत उनका नीतिपूर्ण शांति स्थापना; सराहनीय है। लिहाजा सांसारिक दृष्टिकोण से उन्हें विश्वशांति के महादूत की संज्ञा दी जा सकती है।
रामचरितमानस के षष्ठम सोपान लंकाकाण्ड में एक प्रसंग आता है, जब यह पता चलता है कि देवी सीता लंका के अशोक वाटिका में है, तब श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ कपिराज सुग्रीव व उनके सैन्यदल सहित समुद्र तट को प्रस्थान करते हैं। रत्नाकर की विशाल जलराशि देख श्रीराम लंका के मुख्य मार्ग प्रशस्त हेतु समुद्र से अनुरोध करते हैं। जब श्रीराम के अनुनय-विनय पर समुद्र मौन साध लेते हैं, तब वे अनुज लक्ष्मण को इंगित करते हुए समुद्र के प्रति अपना कोप प्रदर्शित करते हैं।
              "लछमन बान सरासन आनू।
              सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू।
              सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति।
              सहज कृपन सन सुंदर नीति।"
          वयोवृद्ध सुजान विशाल सागर की मौन-अस्वीकृति से श्रीराम कुपित होते हैं। फिर उनके कोप से समुद्र अवगत हो जाते हैं। और ज्यों ही श्रीराम धनुष पर बाण चढ़ाते हैं, और प्रत्यंचा खींचते हैं; समुद्र के हृदय में भय उत्पन्न होता है। फिर श्रीराम के प्रति समुद्र के हृदय से अनुरोधात्मक शब्द निकलते हैं।
              "प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई।
               उतरिहि कटुक न मोरि बड़ाई।
               प्रभु अज्ञा अपेल श्रुति गाई।
               करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई।"
          समुद्र स्वयं को जड़मति स्वीकारते हुए हार्दिक अनुराग लिये विनय करते हैं। श्रीराम के प्रति उनका अनुराग ही श्रीराम के प्रति सम्मान है।
               "सभ्य सिंधु गहि पद प्रभु करें।
               क्षमहु नाथ सब अवगुन मेरे।"
          यह भी कहा जा सकता है कि समुद्र श्रीराम जैसे धीर-वीर पुरुष के हृदय में कोप की व्युत्पत्ति चाहते हैं। उन्हें विदित है, श्रीराम के कोप का सदुपयोग सांसारिक हित में है, क्योंकि समस्त देश-काल लंकाधिपति रावण के आधीन हैं।‌ दशानन रावण के आतंक से अधिकांश चराचर प्राणी आतंकित हैं। जो लंकापति के विरुद्ध हैं, वे सभी चाहते हैं कि रावण सहित उनके अनुयायियों का समूल विनाश हों। साथ ही, समुद्र को अवगत है कि श्रीराम के धनुष पर चढ़े तीर का निकलना लक्ष्य-भेदन ही होता है। तभी तो वे बड़ी विद्वतापूर्वक श्रीराम के कोप की सामाजिक उपयोगिता सिद्ध करते हैं। समुद्र का व्यक्तव्य रामचरितमानस में इस तरह उल्लेखित है।
       "एहि सर मम उत्तर तट बासी।
        हतहु नाथ खल नर अध रासी।
        सुनि कृपाल सागर मन पीरा।
        तुरतहि हरी राम रनधीरा।"



          अंततः जनसामान्य को अवगत हो ही जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के प्रति समुद्र के हृदय में भय, भय से प्रीति; और प्रीति से सम्मान का स्थान बनता है, जो सांसारिक लोककल्याण हेतु नितांत आवश्यक रहा है। जय श्रीराम...!
(व्याख्याता (अंग्रेजी) घोटिया-बालोद, छग)

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