जीव-जंगल के संरक्षण से टलेंगी आपदाएं
- प्रमोद भार्गव
मिचोंग चक्रवात आंध्र प्रदेश के बापटला जिले और तमिलनाडु के समुद्री तट से 90 से 110 किलोमीटर की हवाओं से टकराया और आगे बढ़ गया। लैंडफाल अर्थात् तट से टकराने की प्राकृतिक प्रक्रिया के बाद यह कमजोर जरूर पड़ गया लेकिन एक दर्जन से ज्यादा मौतों और करोड़ों की संपत्ति के विनाश का कारण बन आगे बढ़ गया। आगे बढ़कर यह ओडिशा और पूर्वी तेलंगाना के दक्षिणी जिले में तेज हवाओं, आंधी और भीषण बारिश का पर्याय बन गया। इसकी तीव्रता के चलते करीब दस हजार लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाना पड़ा। नतीजतन आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के कई जिलों में इस तूफान ने भारी तबाही मचाई है। हज़ारों पेड़ और बिजली के खंभे धराशायी हो गए। भारी बारिश के चलते नदियों, नहरों और तालाबों ने बाढ़ का रूप ले लिया, जिससे हजारों किमी सड़कें क्षतिग्रस्त हो गईं और हज़ारों एकड़ खेतों में खड़ी फसलें बर्बाद हो गईं।
चक्रवात से चेन्नई और आसपास के क्षेत्रों में हज़ारों घरों में पानी भर जाने से लोग फंस गए, जिन्हें बचाने के लिए नौकाओं और ट्रैक्टरों का इस्तेमाल किया गया। इन राज्यों के स्थानीय प्रशासन ने मौसम विभाग की चेतावनी के चलते तत्काल सैकड़ों पुनर्वास केंद्र स्थापित करके साठ हज़ार से अधिक लोगों के ठहरने का प्रबंध किया। चक्रवात के कारण 140 रेलें और 40 हवाई उड़ानें तत्काल रद्द कर दी गईं।
मौसम विभाग की सटीक भविष्यवाणी और आपदा प्रबंधन के समन्वित प्रयासों के चलते मिचोंग चक्रवात ने बड़े क्षेत्र और बड़ी मात्रा में संपत्ति का तो विनाश किया, लेकिन ज्यादा जनहानि का कारण नहीं बन पाया। पशुओं की भी बहुत कम मौतें हुईं। इस परिप्रेक्ष्य में हमारी तमाम एजेंसियों ने आपदा से कुशलतापूर्वक सामना करके एक भरोसेमंद मिसाल पेश की है, जो सराहनीय व अनुकरणीय है। ताकतवर तूफान से बचने के लिए आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, ओडिशा और तेलंगाना को चार दिन पहले से ही सतर्क किया जा रहा था। समाचार-पत्रों से लेकर टीवी और सोशल मीडिया इसकी घातकता लगातार जताते रहे। इससे राज्य और केंद्र सरकारों को समन्वय बनाए रखने और राहत दल संभावित संकटग्रस्त इलाकों में पहुंचाने में सुविधा रही। एनडीआरएफ ने राज्य सरकारों से विचार-विमर्श करके अपने बचाव दल सही समय पर तैनात कर दिए थे। कुदरत के इस कोप से मुकाबला करने की जो तैयारी व जीवटता इस बार देखी गई, इससे पहले बिपरजाॅय तूफान के समय भी देखने में आई थी।
सुखद है कि भारतीय मौसम विभाग द्वारा कुछ समय से चक्रवाती तूफानों के सिलसिले में की गईं भविष्यवाणियां सटीक बैठ रही हैं। इस बार हमारे मौसम विज्ञानी सुपर कंप्यूटर और डापलर राडार जैसी श्रेष्ठ तकनीक के माध्यमों से चक्रवात के अनुमानित और वास्तविक रास्ते का मानचित्र एवं उसके भिन्न क्षेत्रों में प्रभाव के चित्र बनाने में भी सफल रहे। तूफान की तीव्रता, तेज हवाओं एवं आंधी की गति और बारिश के अनुमान भी कमोबेश सही साबित हुए। इन अनुमानों को और कारगर बनाने की जरूरत है, जिससे बाढ़, सूखे और बवंडरों की पूर्व सूचनाएं मिल सकें और उनका सामना किया जा सके।
दरअसल, मौसम विभाग को ऐसी निगरानी प्रणालियां भी विकसित करने की जरूरत है, जिनके मार्फत हर माह और हफ्ते में बरसात होने की राज्य व जि़लेबार भविष्यवाणियां की जा सकें। यदि ऐसा मुमकिन हो पाता है तो कृषि का बेहतर नियोजन संभव हो सकेगा, साथ ही अतिवृष्टि या अनावृष्टि के संभावित परिणामों से कारगर ढंग से निपटा जा सकेगा। किसान भी बारिश के अनुपात में फसलें बोने लग जाएंगे। लिहाजा कम या ज्यादा बारिश का नुकसान उठाने से किसान मुक्त हो जाएंगे। मौसम संबंधी उपकरणों के गुणवत्ता व दूरंदेशी होने की इसलिए भी जरूरत है, क्योंकि जनसंख्या घनत्व की दृष्टि से समुद्रतटीय इलाकों में आबादी भी ज्यादा है और वे आजीविका के लिए समुद्र पर निर्भर भी हैं। लिहाजा समुद्री तूफानों का सबसे ज्यादा संकट इसी आबादी को झेलना होता है।
कुदरत के रहस्यों की ज्यादातर जानकारी अभी अधूरी है। जाहिर है, चक्रवात जैसी आपदाओं को हम रोक नहीं सकते, लेकिन उनका सामना या उनके असर कम करने की दिशा में बहुत कुछ कर सकते हैं। भारत के तो तमाम इलाके वैसे भी बाढ़, सूखा, भूकंप और तूफानों के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं। जलवायु परिवर्तन और प्रदूषित होते जा रहे पर्यावरण के कारण ये खतरे और इनकी आवृत्ति और बढ़ गई है।
कहा भी जा रहा है कि मिचोंग जैसी आपदाएं प्रकृति की बजाय आधुनिक मनुष्य और उसकी प्रकृति विरोधी विकास नीति का परिणाम हैं। इस बाबत गौरतलब है कि 2005 में कैटरीना तूफान के समय अमेरिकी मौसम विभाग ने इस प्रकार के प्रलयंकारी समुद्री तूफान 2080 तक आने की आशंका जताई थी, लेकिन वह सैंडी और नीलम तूफानों के रूप में 2012 में ही आ धमके। इसके 10 साल पहले आए सुनामी ने ओडिशा के तटवर्ती इलाकों में जो कहर बरपाया था, उसके विनाश के चिन्ह अभी भी दिखाई दे जाते हैं। इसकी चपेट में आकर करीब 10 हज़ार लोग मारे गए थे।
दरअसल, सुनामी से फूटी तबाही के बाद पर्यावरणविदों ने यह तथ्य रेखांकित किया था कि अगर मैंग्रोव वन बचे रहते तो तबाही कम होती। ओडिशा के तटवर्ती शहर जगतसिंहपुर में एक औद्योगिक परियोजना खड़ी करने के लिए एक लाख 70 हज़ार से भी ज्यादा मैंग्रोव वृक्ष काट डाले गए थे। उत्तराखंड में भी पर्यटन विकास के लिए बड़ी संख्या में पेड़ काट दिए और पहाड़ियों की छाती छलनी कर दी गई, जिसके दुष्परिणाम हम उत्तराखंड में निरंतर आ रही त्रासदियों में देख रहे हैं। दरअसल, जंगल प्राणी जगत के लिए सुरक्षा कवच हैं, इनके विनाश को यदि नीतियों में बदलाव लाकर नहीं रोका गया तो तय है, आपदाओं के सिलसिलों को भी रोक पाना मुश्किल होगा?
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