बनी रहे पद की गरिमा
इलमा अजीम
देश के विभिन्न राज्यों में राज्यपालों की कार्यशैली को लेकर जिस तरह के सवाल उठ रहे हैं, उन्हें ठीक नहीं माना जा सकता। हालात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उच्चतम न्यायालय तक कुछ राज्यपालों के कामकाज पर तीखी टिप्पणियां कर चुका है। ताजा मामला केरल का है। उच्चतम न्यायालय ने सुनवाई के दौरान केरल के राज्यपाल की भूमिका पर सवाल उठाए और कहा कि वह बिलों को लेकर दो साल से क्या कर रहे थे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जैसे राज्यपाल की संवैधानिक जवाबदेही है, वैसे ही अदालत की भी संविधान और लोगों के प्रति जवाबदेही है। केरल सरकार और राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के बीच आठ लंबित विधेयकों को लेकर विवाद था। इसी को लेकर केरल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था और दखल की मांग की थी। गौरतलब है कि केरल ही नहीं, तमिलनाडु, पंजाब, पश्चिम बंगाल और तेलंगाना के राज्यपालों के मामले भी सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे हैं। इन राज्यों की सरकारों ने अपने राज्यपालों की मनमानी की शिकायत करते हुए आरोप लगाया कि राज्यपाल संविधान के तहत काम नहीं करते हैं। तीन वर्ष से बिलों को रोकने के मामले में उच्चतम न्यायालय तमिलनाडु के राज्यपाल की पहले ही आलोचना कर चुका है। यह सही है कि विधेयकों को स्वीकृत करना या न करना राज्यपाल का विशेषाधिकार है, लेकिन इसका इस्तेमाल इस तरह नहीं होना चाहिए जिससे कानून बनाने में ही बाधा पैदा हो जाए। उच्चतम न्यायालय ने भी पंजाब मामले में कही इस बात को दोहराया है कि राज्यपाल की शक्ति का इस्तेमाल विधायिका के कानून बनाने की प्रक्रिया को रोकने के लिए नहीं किया जा सकता। यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि विशेषाधिकार का दुरुपयोग हो रहा है। संवैधानिक पदों की गरिमा हर हालत में बनी रहनी चाहिए और इन पदों पर विराजमान लोगों को कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिससे कोई उनके कामकाज पर अंगुली उठा सके। यह सही है कि राज्यपालों के निर्णयों पर कांग्रेस या यूपीए की सरकार के दौरान भी सवाल उठते रहे हैं। विडंबना यह है कि एनडीए की सरकार भी इससे अछूती नहीं रही। यह स्थिति बदलनी चाहिए ताकि राज्यपाल पद की गरिमा बनी रहे।
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