सनातन पर अवांछित टिप्पणी
इलमा अजीम
धर्म और आस्था आम लोगों की जिंदगी के बेहद संवेदनशील विषय रहे हैं। अगर कोई व्यक्ति इसमें सुधार की अपेक्षा से कुछ कह रहा हो तो ऐसा किसी की भावनाओं को चोट पहुंचाए बिना भी किया जा सकता है। प्राचीन काल से सभी धर्म और मतों के बीच वैचारिक असहमतियां और बहसें रही हैं। परंपरा में घुस आई विकृतियों को दूर करने के लिए समय-समय पर समाज सुधारकों ने आवाज उठाई और कई ऐसी प्रथाओं को दूर किया गया, जिन्हें अमानवीय या भेदभावमूलक माना जाता है। यही नहीं, स्त्रियों या अन्य सामाजिक वर्गों के खिलाफ भेदभाव, अत्याचार या शोषण से जुड़ी कई परंपराओं को बाकायदा कानून बना कर खत्म किया गया। दरअसल, किसी धर्म के दायरे में कोई विकृत परंपरा विकसित होती है, तो उसमें जिस तरह वक्त लगता है, उसी तरह उसकी पहचान करने के बाद उसे खत्म किए जाने की भी एक प्रक्रिया होती है। इसके लिए समाज की संरचना और उसमें धारणाओं के निर्माण की जड़ों को समझने की जरूरत होती है। लेकिन अगर आवेश में आकर या फिर महज अपनी राजनीति चमकाने के लिए धर्म को लक्ष्य करके नाहक ही कोई टिप्पणी की जाती है तो इससे विवाद और टकराव पैदा होने के अलावा कुछ हासिल नहीं होता।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन के बेटे उदयनिधि स्टालिन ने जिस तरह कुछ बीमारियों को हटाने की बात कहने के साथ-साथ सनातन के बारे में अवांछित टिप्पणी की, उससे साफ है कि वे समाज की जिस समस्या को इंगित करना चाह रहे हैं, उसका हल निकालने को लेकर वे राजनीतिक रूप से परिपक्व समझ शायद नहीं रखते। यही वजह है कि उनके बयान को यह कहते हुए कठघरे में खड़ा किया जा रहा है किसी धर्म का अपमान करके वे किस तरह की राजनीति करना चाह रहे हैं!
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