शिक्षा और स्वास्थ्य में संवेदनहीनता
इलमा अजीम
कई बार संवेदनशीलता कारोबारी सफलता की राह में रुकावट भी पैदा कर देती है। इसीलिए आमतौर पर कारोबार में निवेश करने वालों से संवेदनशील होने की अपेक्षा नहीं की जाती। इनके लिए सिर्फ मुनाफा और आर्थिक तरक्की ही मायने रखते हैं। लेकिन, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में निवेश भी यदि संवेदनहीनता लिए हो तो इसका खमियाजा पूरे देश को चुकाना पड़ता है।
कोरोना महामारी का दौर खत्म होने के बाद ऐसे वाकये सामने आ रहे हैं, जिनसे पता चलता है कि स्वास्थ्य और शिक्षा के निजीकरण की हमें कितनी और किस तरह कीमत चुकानी पड़ी है। दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि समाज के पहरुआ भी सांप निकल जाने के बाद लाठी पीटते नजर आते हैं। ऐसे मौकों पर नीति नियंताओं को तो जैसे सांप सूंघ जाता है। हम यह तो जानते हैं कि स्कूल की फीस नहीं भरने के कारण वंचित समूहों के लाखों बच्चों की पढ़ाई छूट गई। लेकिन, यह जानना और भी ज्यादा दुखदायी है कि निजी स्कूलों के छूटने के बाद जब बच्चे सरकारी स्कूलों या अन्य सस्ते स्कूलों में दाखिला चाहते थे, निजी स्कूलों ने फीस चुकाए बगैर ट्रांसफर सर्टिफिकेट देने से इनकार कर दिया। नतीजतन ऐसे लाखों बच्चे आगे की पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूलों से भी महरूम हो गए। आखिर उन बच्चों का क्या दोष था? यही ना कि उनके अभिभावक गरीब थे। ऐसे में लोकतंत्र में कल्याणकारी राष्ट्र व राज्य की परिकल्पना का क्या औचित्य रह जाता है? देश भर के अस्पतालों से भी ऐसे अनेक किस्से निकलते रहते हैं, जिनसे पता चला कि गरीबों का इलाज नहीं हुआ या मेडिकल बिल नहीं चुकाने के कारण मौत के बाद परिजनों को शव देने से मना कर दिया गया। एक ऐसे देश में जहां वंचित समूह पहले से ही अपनी भावी पीढ़ी को शिक्षित बनाने के लिए कठिन परीक्षाओं के दौर से गुजर रहा हो, निजी स्कूलों व अस्पतालों की ऐसी संवेदनहीनता को सामाजिक अपराध करार दिया जाए तो गलत नहीं होगा। समाज में बरकरार लैंगिक भेदभाव के कारण लड़कियों को पढ़ाना वैसे भी जरूरी नहीं माना जाता रहा है। व्यापक जागरूकता अभियानों की वजह से स्थिति थोड़ी बदलती नजर आ रही है, लेकिन आर्थिक अड़चनें अब भी कम नहीं हैं।
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