नेपाल में मधेशियों के साथ दुर्व्यवहार कब तक ?
- प्रदीप कुमार नायक
भारत -नेपाल का मधुरतम सम्बन्ध सहयोग पूर्ण रहें है!लेकिन समय के चक्कर ने इधर करवट ले लिया है और ढेरों अस्वभाविक गतिविधियां प्रारम्भ हो गई है!नेपाल में मधेशियों के साथ विभेद की राजनीति आज से नहीं बल्कि सदियों से जारी है!
नेपाल में मधेश के नेतागण आपसी द्वन्द में फसे हुए है!ओझल में पड़ती जा रही है मधेश की मुद्दा!निराश हो रहें है मधेशी जनता!आखिर क्या होगा मधेशी मुद्दा का,यह सोचनीय और विचारणीय प्रश्न है ? मधेश को सामानुपातिक अधिकार से सम्पन्न किये जाने से पहले सत्ता की सवारी करना मधेश जन बिद्रोह का सीधा अपमान है!
यहां बताते चले की मधेस राज्य अभियान द्वारा जारी किए गए नक्शे में मधेस के नेपाल में 20 जिले हैं।प्रस्तावित मधेस राज्य का क्षेत्रफल नेपाल के कुल भूभाग का 23 फीसदी यानी 34 हजार 019 वर्ग किलोमीटर हैं। पूर्व से पश्चिम तक मधेस इलाके की लंबाई पांच सौ मील और उत्तर से दक्षिण की चौड़ाई 20 मील हैं।
जंगलों की अंधाधुंध और बढ़ती आबादी से इस इलाके में जमीन के बंटवारे को गलत सरकारी नीतियां बनने लगी।इससे भूसामंतवादी सामाजिक बनावट का जन्म हुआ जिसे साम्राज्यवादी अंग्रेजों और परिवारवादी राणाओं की तागत के बीच पनपने का माहौल मिला,साल 1949 और 1960 के राजनीतिक बदलाव ने उस सामाजिक बनावट को बदलने के बजाय और भी मजबूत किया।
साठ के दशक की शुरुआत में सरकार ने तराई में पहाड़ी लोगों को फिर से बसाने की योजना शुरू की।इस योजना में तराई के मधेसी परिवारों को हिफाजत देने की सोच की बेहद कमी थी।
वैसे साल 1952 में भूमि सुधार आयोग,साल 1955 का शाही ऐलान,1957 का भूमि ऐंन,1959 बिर्ता खारेजी कानून,1963 भूमि एन,1964 भूमि संशोधन ऐंन जैसे तमाम कानूनों के जरिए भूमि वितरण प्रणाली में सुधार करने का ढ़ोल बहुत बार पीटा गया।लेकिन इन सबके पीछे एक ही सरकारी मकसद काम कर रहा था।
मधेस इलाके में पहाड़ी लोगों को फिर से बसाने की योजना महज नाटक भर थी।इस की वजह से अपने ही इलाके में मधेसियों की संस्कृति आगे न बढ़े और उनमें कभी एकता ही न हो।
नीति बनाने वालों में मधेस के विरतावाल और जमींदारों के पैठ की वजह से कानून के उचित प्रावधानों को भी बेकार कर दिया।बताया जाता हैं कि भूमि सुधार की सरकारी कोशिश दात्री राष्ट्र को दिखाने की महज नाटक भर होता था।
मधेस की जमीन पर दोबारा बसाने के नाम पर पहाड़ी समुदायों को फिर से बसाकर सांकृतिक कब्जा करने वाली नेपाल सरकार को जीता हुआ प्रदेश और खुद को विजेता समझने की सोच में कोई बदलाव नहीं आया।
मधेसियों को बराबरी के आधार पर कभी इंसाफ नहीं मिला।इसके विपरीत यहाँ के शासक तबका उनके साथ दूसरे दर्जे के नागरिक जैसा बरताव करता आ रहा हैं।
मधेसियों की एकता के प्रतीक हिन्दी भाषा को विदेशी भाषा बताकर उस पर पाबंदी लगा दी गई।केवल खस नेपाली भाषा को चलाने की सरकारी मुहिम शुरू हुई।
साल 1951 में कुलानंद झा की अगुआई में तराई कांग्रेस बनाई गई।1962 में तराई की आवाज़ को बुलंद करने के लिए रघुनाथ राय की अगुआई में तराई मुक्ति मोर्चा बनाया गया।इसी तरह रघुनाथ ठाकुर ने मधेसी जन क्रांति दल नामक संगठन बनाकर आंदोलन को आगे बढ़ाया।
रघुनाथ ठाकुर,शनिश्चर चौधरी,सत्य नारायण पाठक,नन्दू शाह,शोभित चौधरी,सत्यदेव मणि त्रिपाठी,डॉ. लक्ष्मी नारायण झा जैसे लोगों ने मधेस राज्य व मधेसी समस्या को हल करने के लिए अपने आप को न्योछावर कर दिया।
नेपाल की कुल आवादी का 52 फीसदी मधेसी हैं लेकिन नेपाल की 205 सीटों वाली संसद में कभी भी उनकी अगुआई 30 फीसदी से ज्यादा नहीं रही। आज भी नेपाली संसद और शासन में नेपाल के पहाड़ी खस समुदाय के डेढ़ करोड़ से ज्यादा मधेसियों की राष्ट्रीयता को लेकर शक भरा हुआ हैं।चुनाव, संसद, तालीम, न्यायिक सेवा, पुलिस प्रशासन, लोक सेवा वगैरह क्षेत्र में आज भी मधेसियों को दर किनार करने की नीति कायम हैं।
नेपाल के बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस, कम्युनिस्ट के साथ साथ कोई भी दूसरा बड़ा दल मधेस की समस्या को गंभीरता से उठाने की जरूरत ही महसूस नहीं करता।
पंचायत काल में ही मधेसी समस्या को लेकर बनी नेपाल सदभावना परिषद और अपने स्थापना काल से ही मधेसी समस्या के लिए लड़ने वाली नेपाल सदभावना पार्टी को भी साम्प्रदायिक के चश्में से देखने वाली नेपाल सरकार ने नेपाल सदभावना पार्टी को भी इसी दोषी चश्में से देखा था! फिलहाल जसपा और जनमत पार्टी को भी इसी तरह से देखा जाता है!
नेपाल में मधेसियों की बहुत सारे नेता हैं।लेकिन वर्तमान में कोई कांगेस के भरिया तो कोई कम्युनिस्ट के पिछलग्गू के रूपमें रहते आया हैं।आवश्यकता हैं कि मधेसियों को आपसी समझदारी,समान्यजस्य और सदभावनाओं को अभिवृद्धि करना पड़ेगा।तभी मधेसियों को दुःख-दर्द तथा अपनी समस्याओं से निजात मिल पायेगा।
(स्वतंत्र लेखक एवं पत्रकार )
नीति बनाने वालों में मधेस के विरतावाल और जमींदारों के पैठ की वजह से कानून के उचित प्रावधानों को भी बेकार कर दिया।बताया जाता हैं कि भूमि सुधार की सरकारी कोशिश दात्री राष्ट्र को दिखाने की महज नाटक भर होता था।
मधेस की जमीन पर दोबारा बसाने के नाम पर पहाड़ी समुदायों को फिर से बसाकर सांकृतिक कब्जा करने वाली नेपाल सरकार को जीता हुआ प्रदेश और खुद को विजेता समझने की सोच में कोई बदलाव नहीं आया।
मधेसियों को बराबरी के आधार पर कभी इंसाफ नहीं मिला।इसके विपरीत यहाँ के शासक तबका उनके साथ दूसरे दर्जे के नागरिक जैसा बरताव करता आ रहा हैं।
मधेसियों की एकता के प्रतीक हिन्दी भाषा को विदेशी भाषा बताकर उस पर पाबंदी लगा दी गई।केवल खस नेपाली भाषा को चलाने की सरकारी मुहिम शुरू हुई।
साल 1951 में कुलानंद झा की अगुआई में तराई कांग्रेस बनाई गई।1962 में तराई की आवाज़ को बुलंद करने के लिए रघुनाथ राय की अगुआई में तराई मुक्ति मोर्चा बनाया गया।इसी तरह रघुनाथ ठाकुर ने मधेसी जन क्रांति दल नामक संगठन बनाकर आंदोलन को आगे बढ़ाया।
रघुनाथ ठाकुर,शनिश्चर चौधरी,सत्य नारायण पाठक,नन्दू शाह,शोभित चौधरी,सत्यदेव मणि त्रिपाठी,डॉ. लक्ष्मी नारायण झा जैसे लोगों ने मधेस राज्य व मधेसी समस्या को हल करने के लिए अपने आप को न्योछावर कर दिया।
नेपाल की कुल आवादी का 52 फीसदी मधेसी हैं लेकिन नेपाल की 205 सीटों वाली संसद में कभी भी उनकी अगुआई 30 फीसदी से ज्यादा नहीं रही। आज भी नेपाली संसद और शासन में नेपाल के पहाड़ी खस समुदाय के डेढ़ करोड़ से ज्यादा मधेसियों की राष्ट्रीयता को लेकर शक भरा हुआ हैं।चुनाव, संसद, तालीम, न्यायिक सेवा, पुलिस प्रशासन, लोक सेवा वगैरह क्षेत्र में आज भी मधेसियों को दर किनार करने की नीति कायम हैं।
नेपाल के बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस, कम्युनिस्ट के साथ साथ कोई भी दूसरा बड़ा दल मधेस की समस्या को गंभीरता से उठाने की जरूरत ही महसूस नहीं करता।
पंचायत काल में ही मधेसी समस्या को लेकर बनी नेपाल सदभावना परिषद और अपने स्थापना काल से ही मधेसी समस्या के लिए लड़ने वाली नेपाल सदभावना पार्टी को भी साम्प्रदायिक के चश्में से देखने वाली नेपाल सरकार ने नेपाल सदभावना पार्टी को भी इसी दोषी चश्में से देखा था! फिलहाल जसपा और जनमत पार्टी को भी इसी तरह से देखा जाता है!
नेपाल में मधेसियों की बहुत सारे नेता हैं।लेकिन वर्तमान में कोई कांगेस के भरिया तो कोई कम्युनिस्ट के पिछलग्गू के रूपमें रहते आया हैं।आवश्यकता हैं कि मधेसियों को आपसी समझदारी,समान्यजस्य और सदभावनाओं को अभिवृद्धि करना पड़ेगा।तभी मधेसियों को दुःख-दर्द तथा अपनी समस्याओं से निजात मिल पायेगा।
(स्वतंत्र लेखक एवं पत्रकार )



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