मौसम की क्रूरता
वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन ने अपना क्रूर चेहरा दिखाना शुरू कर दिया है। हिमाचल प्रदेश में जुलाई में 200 प्रतिशत ज्यादा बारिश हुई है। यही हाल उत्तराखंड का है। हिमाचल के मंडी, कुल्लू, चंबा, शिमला, सिरमौर में जान-माल की अप्रत्याशित तबाही दिल दहला देने वाली है। मृतकों की संख्या 80 हो गई है। जगह-जगह लोग प्रकृति के क्रोध के शिकार हो कर असहाय अनुभव कर रहे हैं। सरकार मरहम लगाने की कोशिश कर रही है, किन्तु साल दर साल बढ़ती बाढ़ की विभीषिका कई सवाल खड़े कर रही है। जलवायु परिवर्तन के असर की भविष्यवाणी तो कई सालों से की जा रही है और जिसके चलते हिमालय जैसे नाजुक पर्वत क्षेत्र में उचित सावधानियां क्यों नहीं उठाई गई हैं। सैंकड़ों पर्यटक जगह जगह फंसे पड़े हैं। ईश्वर का शुक्र है कि सब सुरक्षित हैं। सरकार भी उनकी समस्याओं के प्रति संवेदनशील होकर कार्रवाई कर रही है, किन्तु बरसात में पर्यटन को किस तरह दिशा निर्देशित किया जाना चाहिए, इस बात की कमी खलती है। बरसात से पहले बांधों में बाढ़ का पानी रोका जा सके, इसके लिए बांधों को खाली रखा जाना चाहिए, किन्तु अधिक से अधिक बिजली पैदा करने के लिए बांध भरे ही रहते हैं। बरसात आने पर पानी जब बांध के लिए खतरा पैदा करने के स्तर तक पहुंचने लगता है तो अचानक इतना पानी छोड़ दिया जाता है जितना शायद बिना बांध के आई बाढ़ में भी न आता। इन मुद्दों की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए और बांध प्रशासन को निर्देशित किया जाना चाहिए। बांधों की बाढ़ नियंत्रण भूमिका को सक्रिय किया जाना चाहिए। पर्वतीय क्षेत्रों के लोग लगातार विकास के नाम पर चल रही अंधी दौड़ के विरोध में अपनी आवाज बुलंद करते रहे हैं, किन्तु सरकारों और तकनीकी योजना निर्माताओं के कानों में जूं भी नहीं रेंगती है। एक अच्छा बहाना इन लोगों को मिल जाता है कि प्रकृति के आगे हम क्या कर सकते हैं, किन्तु इन लोगों को पूछा जाना चाहिए कि प्रकृति को इतना मजबूर करने का आपको क्या हक है कि प्रकृति बदला लेने पर उतारू हो जाए। हमें सोचना होगा कि हिमालय में होने वाली कोई भी पर्यावरण विरोधी कार्रवाई पूरे देश के लिए हिमालय द्वारा दी जाने वाली पर्यावरणीय सेवाओं से वंचित करने वाली साबित होगी।
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