आस्था का केंद्र त्रिलोकीनाथ धाम
- पं. विनोद दुबेराबर्ट्सगंज, सोनभद्र।
त्रिलोकीनाथ मंदिर हिमाचल प्रदेश के जिला लाहुल-स्पीति के उदयपुर उपमंडल में स्थित है। यह केलांग से लगभग 45 किमी. लाहुल-स्पीति के जिला मुख्यालय मनाली से 146 किमी. की दूरी पर है।
त्रिलोकीनाथ मंदिर का प्राचीन नाम टुंडा विहार है। यह पवित्र मंदिर हिंदुओं और बौद्धों द्वारा समान रूप से सम्मानित है। हिंदुओं द्वारा त्रिलोकीनाथ देवता को ‘भगवान शिव’ के रूप में माना जाता है, जबकि बौद्ध देवताओं को ‘आर्य अवलोकितेश्वर’ तिब्बती भाषा बोलने वाले लोगों को ‘गरजा फग्स्पा’ कहते हैं। यहां देश ही नहीं विदेश से भी लोग आते हैं। यहां भूटान और नेपाल से भी बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म से जुड़े लोग पहुंचते हैं। यहां जंसखर, लेह और लद्दाख से भी भारी मात्रा में लोग पहुंचते हैं। संभवत: पूरी दुनिया में ही शायद ही ऐसा कोई मंदिर हो, जहां दो धर्मों के लोग एक साथ पूजा-अर्चना करते हैं और अपने-अपने आराध्य देवता से मन्नत मांगते हैं।
मंदिर का ऐतिहासिक महत्त्व-
मंदिर के ऐतिहासिक महत्त्व के बारे में निश्चित तौर पर तो कुछ नहीं कहा जा सकता, परंतु ऐसा मत है कि यह मंदिर 10वीं सदी में बनाया गया था। यह बात एक शिलालेख पर लिखे गए संदेश द्वारा साबित हुई है, जो 2002 में मंदिर परिसर में पाया गया था। इस शिलालेख में वर्णन किया गया है कि मंदिर ‘दीवानजरा राणा’ द्वारा बनाया गया था, जो वर्तमान में त्रिलोकनाथ गांव के राणा ठाकुर शासकों के पूर्वज माने जाते हैं। उनका मत है कि चंबा के राजा शैल वर्मन ने शिखर शैली में इस मंदिर का निर्माण करने में सहायता की थी, क्योंकि शिखर शैली का लक्ष्मी नारायण मंदिर चंबा में भी स्थित है।
यह मंदिर संभवत: 9वीं शताब्दी के अंत में और लगभग 10वीं शताब्दी के प्रारंभ में बनाया गया था। चंबा के महायोगी सिद्ध चरपथ नाथ ने भी इसके निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाई थी। माना जाता है कि है कि उनकी बोधिसत्व आर्य अवलोकितेश्वर में आस्था एवं भक्ति थी और उन्होंने आर्य अवलोकितेश्वर की स्तुति में 25 श्लोकों की रचना की थी जिसे ‘अवलोकितेश्वर स्तोतं छेदम’ के नाम से जाना जाता है। यह शिखर शैली में लाहुल घाटी का एकमात्र मंदिर है। त्रिलोकनाथ जी की मूर्ति में ललितासन भगवान बुद्ध त्रिलोकीनाथ के सिर पर बैठे हैं। यह मूर्ति संगमरमर से बनी है।
पौरा मेला –
मंदिर में भगवान शंकर की मूर्ति के सामने दो स्तंभ हैं, जिसे धर्म द्वार कहा जाता है। श्रदालु इस द्वार से गुजर कर अपने पुण्य पाप की परख करते हैं। स्थानीय ठाकुर त्रिलोकीनाथ जी के घोड़े को सप्तधारा के शुरुआती बिंदु तक ले जाते हैं और ऐसा माना जाता है कि वे त्रिलोकीनाथ जी को इस घोड़े पर वापस मंदिर में लाते हैं।
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