विकासशील देशों की चुनौती
यह एक हकीकत है कि जलवायु परिवर्तन का दंश पूरे विश्व के लिये संकट पैदा कर रहा है। जिसके प्रभाव पूरी दुनिया में सूखे, बाढ़ और लू की तपिश के रूप में सामने आ रहे हैं। खासकर विकासशील देशों के लिये यह बड़ी चुनौती होगी क्योंकि उन्हें अपनी बड़ी आबादी को इस संकट से सुरक्षा प्रदान करनी होगी। इस विकट स्थिति में वृद्धि की आशंकाओं के बीच विश्व मौसम विज्ञान संगठन यानी डब्ल्यूएमओ के जलवायु परिवर्तन के पूर्वानुमान डराने वाले हैं। संगठन के अनुसार आने वाले पांच वर्ष अब तक के सबसे गर्म वर्ष साबित होने वाले हैं। जिसके लिये दुनिया के तमाम देशों को तैयार रहना होगा। 
               निस्संदेह, घातक मौसमी घटनाओं के परिणामों से बचने के लिये विकसित व विकासशील देशों को कमर कसनी होगी। दुनिया में पर्यावरण संरक्षण से जुड़े तमाम संगठनों की दशकों से पर्यावरण संरक्षण की मांग को अनदेखा करके विकसित देश गरीब मुल्कों की मदद के लिये आगे नहीं आ रहे हैं। जिसके चलते हाल-फिलहाल में इस संकट का तार्किक समाधान निकलता नजर नहीं आ रहा है। हालांकि, विश्व मौसम विज्ञान संगठन की यह टिप्पणी कुछ राहत देती है कि यह वैश्विक तापमान वृद्धि अस्थायी है। लेकिन संगठन इसके बावजूद चेतावनी देता है कि पूरी दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग एक हकीकत बन चुकी है। मगर यह भी एक हकीकत है कि जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में हुए सम्मेलनों में किये गये वायदों का सम्मान करने के लिये विकसित राष्ट्र अपने दायित्वों से विमुख बने हुए हैं। आज के हालात में यह जरूरी हो गया है कि जीवाश्म ईंधन के विकल्प तुरंत तलाशे जायें। अब चाहे हरित ऊर्जा का क्रियान्वयन युद्ध स्तर पर करने की जरूरत हो या फिर गरीब मुल्कों में संवेदनशील क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की सुरक्षा और पुनर्वास की तैयारी हो, बिना अमीर मुल्कों की आर्थिक मदद के स्थिति में कोई सुधार संभव नहीं होगा। यह न्यायसंगत होगा कि पिछली शताब्दी में विकसित देशों की औद्योगीकरण की प्रक्रियाओं के दौरान कार्बन उत्सर्जन के कारण विकासशील देशों को हुए नुकसान की भरपाई विकसित देश ईमानदारी से करें। विकसित देशों को अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन ईमानदारी से करना होगा।

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