जोखिम में बचपन

दिल्ली में इकतालीस नाबालिग बच्चों को कारखानों से मुक्त कराने का समाचार ताजा उदाहरण है कि बचपन जोखिम में है। मुक्त कराए गए बच्चों की सेहत बहुत खराब थी, वे सभी नंगे पांव थे और उनमें से कई के शरीर पर जलने के निशान थे। भूख-प्यास और स्वास्थ्य संबंधी अनदेखी के निशान उनके चेहरों पर नजर आ रहे थे। ऐसे न जाने कितने बच्चे खेलने-कूदने और पढ़ने-लिखने की उम्र में परिवार का गुजारा चलाने के लिए कारखानों में काम करने को मजबूर होते हैं। कारखाना मालिक ऐसे बच्चों की मजबूरी का फायदा उठा कर बहुत कम पैसे पर उनसे काम कराने लगते हैं। इनमें से ज्यादातर कारखानों में श्रमिकों की सुरक्षा सुविधाएं तो दूर, साफ हवा और सूरज की रोशनी तक आने की गुंजाइश नहीं रहती। बदबूदार गलियों की सीलन भरी तंग कोठरियों में बैठ कर उन्हें दस से बारह घंटे काम करना पड़ता है। न तो उनके लिए कोई उचित शौचालय होता है, न पीने के साफ पानी का इंतजाम। खाने-पीने और आराम के लिए भी पर्याप्त समय नहीं दिया जाता। ऐसे में उनके स्वास्थ्य की जांच आदि की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। कानून के मुताबिक चौदह साल से कम उम्र के बच्चों को श्रम वाले कामों में नहीं लगाया जा सकता। हर कारखाने में इस बात की घोषणा करनी पड़ती है कि उनके यहां कम उम्र के बच्चों को काम पर नहीं रखा जाता। कारखानों के बाहर ऐसी तख्तियां लगी भी रहती हैं। इसके लिए जागरूकता अभियान भी खूब चलाए जाते हैं। इस तरह हर व्यक्ति को इस कानून और इसके उल्लंघन पर दंड के बारे में जानकारी है। फिर भी बाल श्रम पर काबू नहीं पाया जा सका है। ढाबों, घरेलू सहयोग, गाड़ियों की मरम्मत आदि के कामों में तो छोटी उम्र के बच्चों को काम करते देखा ही जाता है, स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक माने जाने वाले कारखानों में भी उनसे काम लेने से परहेज नहीं किया जाता। जब दिल्ली जैसे शहर में यह आलम है कि कारखाना मालिक बच्चों को खतरनाक कामों पर रखने से भय नहीं खाते, तो दूर-दराज के इलाकों और छोटे शहरों-कस्बों का अंदाजा लगाया जा सकता है।

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