मूल्यविहीन चुनावी रणनीति का दौर
चुनाव हमारे जनतंत्र की निरंतर चलने वाली प्रक्रिया का नाम है। आज़ादी के बाद जब चुनावों का सिलसिला शुरू हुआ तो पांच साल बाद चुनाव का शोर सुनाई देता था, पर अब तो आये दिन चुनाव होते रहते हैं, कभी पंचायतों के, कभी विधानसभाओं के और कभी संसद के। मेघालय, त्रिपुरा, हिमाचल प्रदेश आदि के चुनाव खत्म हुए नहीं थे कि कर्नाटक के चुनाव आ गये। इसके बाद नम्बर राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों का है और फिर 2024 में तो आम चुनाव हैं ही। इस सबके चलते ही ऐसा लगता है, जैसे हमारे नेता चुनाव-प्रचार में ही लगे रहते हैं। यह भी समझ नहीं आता कि वे राजकाज की चिंता कब करते हैं और कब सत्तारूढ़ दल चुनाव-प्रचार कर रहा होता है। इसी का परिणाम है कि हमारी समूची राजनीति एक चुनाव से दूसरे चुनाव तक सिमट कर रह गयी है। इस सबके बावजूद चुनावों का स्वागत ही होना चाहिए, क्योंकि यह चुनाव ही जनता को अवसर देते हैं अपने नेताओं से यह पूछने का कि वे जनता के हितों के लिए क्या और कैसे काम कर रहे हैं। यह मौका होता है सत्तारूढ़ दल के लिए अपने किये का लेखा-जोखा देने का और विपक्ष के लिए यह बताने का कि बेहतर शासन देने के लिए उसके पास क्या योजनाएं हैं, कौन-सी नीतियां हैं। पर क्या सचमुच ऐसा होता है?
समूचा चुनाव-प्रचार इस बात की गवाही दे रहा है कि घोषणा-पत्र और नीतियां-कार्यक्रम आदि हाथी के दिखाने वाले दांत मात्र हैं। खाने के दांत तो वह आरोप-प्रत्यारोप हैं जो हमारे राजनीतिक दल एक-दूसरे पर लगाते हैं। कभी धर्म के नाम पर मतदाता को भरमाया जाता है, कभी जाति के नाम पर। कभी उम्मीदवारों और अन्य प्रतिपक्षी राजनेताओं के व्यक्तिगत जीवन की परतें उधेड़ी जाती हैं और कभी सच्चे-झूठे आरोप लगा कर घटिया राजनीति का उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है। विचार नहीं, व्यक्ति को केंद्र में रख कर चुनाव-प्रचार को धार दी जाती है।चुनाव-प्रचार का एक और तरीका ‘विक्टिम कार्ड’ खेलने का है। इसका ताज़ा उदाहरण सत्तारूढ़ पार्टी के प्रचार-तंत्र द्वारा प्रधानमंत्री को कहे गये कथित अपशब्दों की संख्या प्रचारित करना है। स्वयं प्रधानमंत्री ने कर्नाटक की एक चुनावी-सभा में इस आकलन का हवाला देते हुए कहा है कि किसी ने गिनती करके बताया है कि विपक्ष अब तक उन्हें इक्यानवे अपशब्द कह चुका है।  सवाल इस बात का है कि नीतियां या कार्यक्रम चुनाव-प्रचार का हिस्सा क्यों नहीं बनते? स्वस्थ राजनीति हमारी राजनीति में कब देखने को मिलेगी? कब सिद्धांतों की राजनीति होगी? आदर्शों-मूल्यों के आधार पर कब चुनाव लड़े जाएंगे। कब गालियां देने और गिनने के बजाय अच्छे-बुरे काम गिने-गिनाये जाएंगे?

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