शिक्षा के बिना अधूरी है लोकतांत्रिक मूल्यों की पहचान  

- विजय गर्ग
एक स्वस्थ लोकतंत्र में प्रत्येक नागरिक को शिक्षित होना नितांत आवश्यक है। यह कोई नई स्थापना नहीं है कि शिक्षा हमारे समाज को सभ्य बनाने का काम करती है और साथ ही आने वाली पीढ़ियों के भविष्य की राह तैयार करती है।
आज का युग सूचनाओं का है। ऐसे में शिक्षा लोकतंत्र के लिए आवश्यक इसलिए हो जाता है कि लोकतंत्र का संचालन संचार और सूचनाओं के बिना अधूरा है। पहले की अपेक्षा आज आधुनिक होते समाज की जरूरतें बहुत ज्यादा बढ़ गई हैं। समकालीन समाज सूचना, वैज्ञानिक चेतना की ओर अग्रसर है, ऐसे समय में शिक्षा का महत्त्व पहले की अपेक्षा काफी बढ़ गया है।
हालांकि ये कहना शायद महत्त्व को सीमित करना होगा कि सिर्फ शिक्षा में ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण कि जरूरत है। हमारे लोकतंत्र में भी वैज्ञानिक आधार की बहुत ज्यादा आवश्यकता है। इस मसले पर जान ड्यूवी कहते हैं कि शिक्षा के अभाव में लोकतंत्र कम सक्षम, निर्जीव और एक तरह से अनावश्यक रूप से लचीला है और लोकतंत्र के अभाव में शिक्षा सूखी, नीरस तथा मृतप्राय है।
आज संपूर्ण लोकतंत्र में भागीदारी का निर्वहन न करना शिक्षा के आभाव को ही दर्शाता है। पढ़ाई-लिखाई को सिर्फ नौकरी और व्यवसाय के नजरिए से नहीं देखना चाहिए। बेहतर जीवन जीने और समाज के अनुरूप आगे बढ़ने के लिए भी यह बेहद जरूरी है। बल्कि इसी मोर्चे पर उसकी उपयोगिता ज्यादा है।
लेकिन सवाल है कि जब आम लोगों के लिए अपना जीवन बसर करने के लिए शिक्षा इतनी जरूरी है, तो क्या शासन चलाने वाले नेताओं का ठीक से पढ़ा-लिखा होना जरूरी नहीं है? राजनेता चुनाव में हिस्सा लेकर शासन में अपनी भागीदारी निभाते हैं। उनके कंधों पर देश चलाने की जिम्मेदारी अधिक होती है। इस लिहाज से भी देखा जाए, तो उनका बेहतर स्तर तक शिक्षित होना जरूरी है। लोकतंत्र की गाड़ी बेहतरीन तरीके से तभी संचालित हो सकती है, जब लोकतंत्र में शामिल होने वाले लोग उच्च स्तरीय सोच-समझ वाले होंगे। जो खुद शिक्षा से वंचित होंगे, उनका देश की बागडोर संभालना क्या नतीजे देगा?



मनुष्य जाति को नियंत्रित करने की कला पर ध्यान देने वाले सभी लोग इस बात को मानते हैं कि शासन का भाग्य एक शिक्षित लोकतंत्र पर निर्भर करता है। आज के समय में देश की त्रासदी कहें या जनता का, समाज ने जिन्हें विश्वास करके लोकतंत्र को आगे बढ़ाने का जिम्मा सौंपा, वे खुद वास्तविक शिक्षा की समझ नहीं रखते हैं। यह भी लोकतंत्र की एक विडंबना है कि शिक्षित लोग लोकतंत्र का हिस्सा नहीं बन पाते हैं। हैरान कर देनी वाली बातें हमारे सामने आती हैं, जिन्हें शिक्षा की ठीक से और व्यावहारिक समझ कुछ नहीं है, उनकी आज शिक्षा के क्षेत्र में तूती बोलती है। हालांकि यह भी विचित्र विरोधाभास है कि ऐसे तमाम शिक्षित मिल जाएंगे, जिन्हें लोकतंत्र नहीं, तानाशाही अच्छी लगती है। यह वर्ग अपने निहित-स्वार्थों से आगे जाकर देख ही नहीं पाता।
दरअसल, यही वह वर्ग है, जिसे सामाजिक न्याय के नजरिए से चिढ़ है और जो शिक्षा व समाज के प्रति अपनी जवाबदेही से भागता है। उपेक्षित तबकों से इस सुरक्षित वर्ग ने न केवल खास दूरी बनाई हुई है, बल्कि मौका मिलते ही समय-समय पर उनके हितों पर हमले भी किए हैं। आज देश में आरक्षण, धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर सबसे ज्यादा वैचारिक और राजनीतिक हमले इसी वर्ग की ओर से हो रहे हैं और देश के सबसे गैरजिम्मेदार राजनीतिक समूहों ने इसे और आगे ले जाने का काम किया है।
कई बार ऐसा लगता है कि अगर सभी लोग वास्तव में शिक्षित हो जाएंगे तो तानाशाही व्यवस्था में जीने वाले लोगों की दुकानें बंद हो जाएंगी। शायद इसीलिए शिक्षा को पूरी तरह दुरुस्त शक्ल देने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जाते हैं। अफसोस की बात यह है कि पिछले कुछ समय से लंबी-चौड़ी चलने वाली बहसों से शिक्षा का मुद्दा गायब होता जा रहा है।
शिक्षा के मौजूदा ढांचे पर बातें करते समय एक अहम पहलू है सरकारी नीति का, दूसरा पहलू शिक्षक की अवधारणा का और तीसरा पहलू है विद्यार्थी के स्वरूप का। लोकतंत्र के बहुमुखी विकास में मदद करना हमारी शिक्षा प्रणाली का बुनियादी लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि हम लोकतंत्र की समझ बेहतर और गंभीर बनाएं। एक शिक्षक को आचार-व्यवहार और परिप्रेक्ष्य के लिहाज से लोकतांत्रिक होना चाहिए। वह अपने विषय को गंभीरता से जाने, विद्यार्थियों में अध्ययन और श्रम के प्रति गहन रुचि पैदा करने की उसमें क्षमता हो। वह पढ़ाई के अत्याधुनिक तरीकों से वाकिफ हो, अपने काम की जगह स्वच्छ और सुव्यवस्थित रखना सिखाए, पुस्तक से संबंधित सामग्री और संवाद या संचार के उपकरणों के उपयोग के तरीकों से परिचित हो। देश में विकास कि बातें हर रोज सुबह से शाम होती है, लेकिन देश का विकास क्या शिक्षा के बिना संभव है। सच यह है कि लोकतांत्रिक मूल्यों की पहचान शिक्षा के बिना अधूरा है।
(सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य, मलोट, पंजाब)

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