निराशा में गुम होता बचपन
प्रो.ओपी चौधरी
बचपन जीवन की सबसे खूबसूरत अवस्था है, जिसमें न तो किसी जिम्मेदारी का एहसास होता है और न ही कोई चिंता। सिर्फ ‘खाओ पिओ और ऐश करो’ का सिद्धांत सत्य प्रतीत होता है। हम सबके पास अपने बचपन की बहुत सारी यादें हैं, कुछ अच्छी और कुछ बुरी, जिनके बारे में सोचकर आज भी हमारे चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ जाती है। हमने ऐसी बहुत-सी नादानियां या गलतियां की होंगी, जिनके बारे में सोचकर खुद पर हंसी भी आती होगी और गुस्सा भी।
मगर आज शायद बचपन आता ही नहीं है, बच्चों की मासूमियत कब गंभीरता या समझदारी में बदल जाती है, पता ही नहीं लगता। शायद इसलिए, क्योंकि इस पीढ़ी के बच्चों ने अपने बचपन को जिया ही नहीं। उनकी मासूमियत बहुत जल्दी परिपक्वता में बदल गई, तकनीक और मीडिया ने उम्र और समय से पहले ही उनका बचपन छीन लिया।
यह भी एक तथ्य है कि पहले का बचपन और आज का बचपन बिल्कुल भिन्न है या कहें कि एकदम उलट है। आज का बचपन तनावग्रस्त, नियमित पढ़ाई के साथ-साथ विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी और शौक की कक्षाओं में व्यस्त रहता और न दिखाई देने वाली एक दौड़ में दौड़ता नजर आता है। इन सबके चलते बच्चे समय से पहले ही परिपक्व हो रहे हैं।
सूचना क्रांति और उपभोक्ता बाजार ने उनके अपरिपक्व मस्तिष्क पर सूचनाओं का हमला बोल दिया है, जिससे उन्हें अपनी मानसिक क्षमता को अत्यधिक विस्तार देने की आवश्यकता होती है ताकि वे उन समस्त सूचनाओं को अपने ‘ज्ञान भंडार’ में रख सकें और स्वयं को जीवन की दौड़ में सफल साबित कर सकें। इस सफलता की संभावना ने बच्चों को उपभोक्ता में तब्दील कर दिया है, उनकी स्वाभाविकता भी समाप्त हो गई है।
इसमें संदेह नहीं कि प्रौद्योगिकी ने विश्व को व्यापक पैमाने पर खोल दिया है, पर प्रत्यक्ष अनुभवों का कोई विकल्प नहीं होता, जिससे आज के बच्चे तेजी से वंचित होते जा रहे हैं। आजकल प्रौद्योगिकी के कारण बाहरी गतिविधियों को घर के भीतर की गतिविधियों ने विस्थापित कर दिया है, जिसका प्रभाव न केवल बच्चों के शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ा है, बल्कि बच्चों में निराशा और कुंठा भी बढ़ रही है।
बच्चों में ‘सामाजिकता’ समाप्त हो रही है, उनमें व्यक्तिवादिता बढ़ रही है। वे चुनौतियों का सामना करने के बजाय पलायनवादी बन रहे हैं, जीवन जीने के बजाय उसे समाप्त कर लेना उन्हें ज्यादा सरल लगने लगा है। देखा जाए तो बच्चों में आए इन बदलावों के लिए पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि का असमान और भेदभावपूर्ण होना, शिक्षण प्रणाली, बाजार आधारित अस्मिता पर व्यय करना, गला-काट प्रतियोगिता के लिए प्रयास करना, उच्च पद प्राप्ति की इच्छा, अधिकतम स्तर की सफलता प्राप्त करने की आकांक्षा, अनौपचारिक प्रणाली से अलगाव और भावनात्मकता की समाप्ति, करिअर के लिए बच्चों पर दबाव, ग्रामीण-नगरीय विभाजन के आधार पर योग्यता की पहचान करना, अर्थव्यवस्था, राजनीति, संस्कृति और अहंवाद का मनोविज्ञान, अपनी बौद्धिकता पर संदेह करना आदि कारण हैं।
प्रतियोगिताओं के सभी स्वरूप बच्चों में विखंडित व्यक्तित्व और आत्मविश्वास की कमी पैदा कर रहे हैं, इसलिए आत्महत्या निराशा के बजाय सामाजिक दबाव का परिणाम अधिक है। इन आत्महत्याओं को आत्महत्या नहीं, बल्कि व्यवस्थाजनित आत्महत्याएं कहा जा सकता है, जिसके लिए औपचारिक और अनौपचारिक दोनों प्रकार की संस्थाएं जिम्मेदार हैं।
शैक्षणिक संस्थाओं ने सफलता के मूल्य को असीमित बना दिया है, यानी अब सफलता की कोई सीमा नहीं है। सर्वोच्च स्थान प्राप्त करना ही सफलता का मापक है। इसके बाद प्रतियोगी परीक्षाओं में आपकी रैंक श्रेष्ठ ही आनी चाहिए, ऊंचे वेतनमान वाली नौकरी मिलनी चाहिए। इस प्रवृत्ति ने छात्र को तबाही के रास्ते पर लाकर खड़ा कर दिया है।
बाजार ने प्रत्येक परिवार को, चाहे वह निम्न हो या उच्च, बाध्य किया है कि वह अपने बच्चों को अगर सफल बनाना चाहता है, तो उन्हें अमुक शिक्षण संस्थानों में प्रवेश दिलाना होगा। पर यह भी तथ्य है कि माता-पिता की जरूरत से ज्यादा उम्मीदें और दिन-प्रतिदिन बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने बच्चों को इतना व्यस्त कर दिया है कि वे तनाव में रहने लगे हैं।
शोध के मुताबिक, अगर बच्चा कक्षा परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रहा है या खराब अंक आता है, तो वह हीनभावना का शिकार हो जाता है। शिक्षकों की उपेक्षा का शिकार होता है, माता-पिता की उलाहना झेलता है। और अगर इसी तरह के परिणाम निरंतर आते रहे तो वह इस तनाव का शिकार हो जाता है कि मेरा चयन नहीं हुआ, तो माता-पिता कर्जा कैसे उतारेंगे।
जिस उम्र में हम उन्हें कोचिंग संस्थानों के अनुशासित पिंजरे में कैद कर देते हैं, वह उम्र तो दोस्ती करने, सामाजिक मूल्यों को सीखने, शारीरिक और मानसिक विकास करने तथा अपनी रचनात्मकता को विकसित करने, दादी-नानी की कहानियां सुनकर उन चरित्रों में खुद को ढूंढ़ने की, बड़े होकर देश के लिए कुछ कर गुजरने की होती है।
यह एक तथ्य है कि सृजनशीलता के लिए कल्पनाशील होना भी जरूरी है और हमने तो बचपन में ही बच्चों की कल्पनाशीलता को समाप्त कर दिया है। संभवत: यही कारण है कि बच्चों में सृजनशीलता की प्रवृत्ति समाप्त हो रही है।
- अध्यक्ष, मनोविज्ञान विभाग,
श्री अग्रसेन कन्या पीजी कॉलेज, वाराणसी।
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