मनोदैहिक विकृतियों के चक्रव्यूह में देश

- प्रो. नंदलाल मिश्र
देश में नाना प्रकार की बीमारियों ने अपना डेरा जमा लिया है और लोग उनका शिकार हो रहे हैं। पानी की तरह ठीक होने के लिए पैसे खर्च होते हैं पर बीमारियां घटने की जगह बढ़ती ही जा रही हैं। दवाई की दुकानों से लेकर डाक्टरों के यहां लंबी लाइनें देखी जा सकती हैं। डाक्टर हैं जो रोग ठीक करने के नाम पर मरीजों को उलझा कर रखते हैं। मेडिकल अब सेवा नहीं व्यवसाय बन चुका है। कुछ ही लोगों में सेवा भाव रह गया है बाकी गोरखधंधे में लिप्त हैं।
      पहले लोग घर के उपजाए अन्न को खाते थे जिसमे रासायनिक खादों का प्रयोग न के बराबर होता था। कीट नाशकों का उपयोग भी नही था पर अब तो खेती में रासायनिक उर्वरकों की प्रतिस्पर्धा है। उस अनाज सब्जी और फल को खाकर दस में से आठ व्यक्ति किसी न किसी रोग से पीड़ित जरूर है। हम अपने आप को जितना स्वस्थ बताएं पर हकीकत यह है कि लोग बीमार हैं, रोगी हैं और किसी न किसी विकृति के शिकार जरूर हैं। पहले स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं के अभाव के चलते लोग घरेलू उपायों से अपने आप को ठीक करने की कोशिश करते थे पर इतनी उलझन वाली बीमारियां भी नही थीं। संभव है कि निदानात्मक सुविधाओं के अभाव के चलते रोगों को पहचानने में दिक्कत रही हो पर ऐसे ऐसे वैद्य मौजूद थे जो नाडी देखकर बड़े से बड़े रोगों को भी समझ लेते थे तथा आयुर्वेदिक पद्धति से इलाज भी कर लेते थे।
युग बदला। लोग बदले। रोगों का स्वरूप भी बदल गया। खान पान की आदतें बदलीं। लोगों की दिनचर्या बदल गई। नौकरी पेशा सर्वाधिक पसंद का पेशा बना और अधिकांश लोग नौकरी की तरफ दौड़ पड़े। खेती में श्रम का अभाव हुआ और विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी ने खेती में नए आयाम स्थापित किए। पशु खेती के लिए बेमानी हो गए।सिंचाई अब रहट कुंओं तथा ढेकली से नहीं होती। अब नहर, इंजन और ट्यूबवेल से सिंचाई हो रही है। इसलिए पशुपालन तथा उसमें लगने वाला श्रम भी खत्म हो गया। अब कृषि के नए नए औजार आ गए।कृषि नए युग में प्रवेश कर गई। उन्नीस सौ पचहत्तर के बाद और दो हजार बीस के बीच जो खेती की तस्वीर उभर कर सामने आई उसके प्रभावों ने लोगों के कान खड़े कर दिए और ऑर्गेनिक खेती की बाते होने लगीं।इस पैतालीस साल के अनुभव और प्रभाव ने उस पीढ़ी के लोगों को रुग्ण बना दिया और उस दौर के लोग बीपी शुगर तथा हृदय रोगों के गिरफ्त में घिर गए। शारीरिक श्रम कमजोर पड़ गया लोग कार्यालयों में कुर्सी पर बैठ कर अपना समय गुजारने लगे।
अब एक नया युग आ गया है जिसको सूचना क्रांति का नाम दिया जा रहा है। इस सूचना क्रांति ने एक नई दुनिया विकसित कर ली है। लोगों को अब यही नहीं मालूम है कि उनकी जरूरतें क्या हैं। उन्हें क्या चाहिए और क्या नहीं चाहिए। यह सब कुछ मीडिया और सूचना तंत्र बता रहा है कि आपकी आवश्यकताएं क्या क्या हैं और इन जरूरतों की प्रतिपूर्ति कहां से होगी। आप तो बस एक बटन क्लिक करिए। पैसा नही है तो बैंको से ले लीजिए। सामान किश्तों में मिल जायेगा। आपको मार्केट भी जाने की जरूरत नहीं है। आपके घर सामान पहुंच जाएगा। छोटी से लेकर बड़ी बड़ी चीजें आपके मोबाइल पर हैं आप तो हिलने की कोशिश भी मत करिए।
अब बताइए कि जब आप हिलेंगे भी नहीं तो स्वस्थ कैसे रहेंगे। यही स्थिति समाज में बनती चली जा रही है और लोग ऑनलाइन शॉपिंग, ऑनलाइन खाना, ऑनलाइन पहनावा सभी कुछ घर बैठे किए जा रहे हैं। घर-परिवार, समाज हर जगह व्यावहारिक उथल पुथल मची हुई है।लोगों का मस्तिष्क उलझा चला जा रहा है। एक समय में बीसों काम करने हैं। अब कपड़े बदलने की तरह लोग बात भी बदलने लगे हैं। किसी के पास समय नहीं है। आप देखते होंगे कि गैदरिंग के समय लोग आते हैं और जाने की जल्दी रहती है क्योंकि समय नहीं है। यही हाल गांवों में भी है।लोगों के पास समय नहीं है। वास्तविकता यह है कि समय खूब है पर अब लोग उस मानसिकता से समय नहीं निकाल पाते जो लोगों में पहले के समय में हुआ करता था। अब एक आदमी के कई रूप हैं कई चेहरे हैं।
इन बदलते चेहरों ने व्यक्ति की मानसिकता को गहरा आघात पहुंचाया है। नाना प्रकार की समस्याओं से उलझा इंसान आज विविध प्रकार की मनोदैहिक विकृतियों का शिकार होता जा रहा है। पूरे विश्व में मनोदैहिक समस्याएं विकराल रूप लेती जा रही हैं। भारतवर्ष भी इसमें अब पीछे नहीं है। भारत वर्ष में आधुनिक समय में जो विकृतियां विशेष रूप से लोगों को प्रभावित कर रही हैं उनमें हृदय रोग, मधुमेह, रक्त चाप, अस्थमा, पेप्टिक अल्सर, कोलाइटिस, स्ट्रेस, अवसाद विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। अब इनके होने का कोई समय नहीं रहा। ये किसी भी उम्र में किसी को हो सकती हैं। मधुमेह और हृदय संबंधी जटिलताएं आम हो गई हैं। पहले इनका अनुपात कम था पर आज के दौर में इनमे बेतहाशा वृद्धि दर्ज हो रही है।
आत्महत्या के मामलों में भी उछाल आया है। लोगों की सहनशीलता कमजोर पड़ रही है। आत्मविश्वास डिग रहा है। छोटी छोटी बातें भी असहनीय हो रही हैं। इन मनोदैहिक विकृतियों में वृद्धि के कारणो पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि हमारे व्यक्तित्व निर्माण के जो स्तंभ थे वही डगमगा रहे हैं। हम नकली जीवन जी रहे हैं। हम अपने संस्कृति की दुहाई तो देते हैं मगर उसको आत्मसात नहीं कर पाते। आत्मसात किसको कर रहे हैं जो आभासी दुनिया के माध्यम से परोसा जा रहा है।अभिभावक भी अंतर्द्वंद से जूझ रहे हैं। वे भी वास्तविकता को समझने में कही न कही भ्रमित हो रहे हैं। उस भ्रम का ही परिणाम है कि हमारे घर की संस्कृति और संरचना दोनो प्रभावित हैं।
नई पीढ़ी को दिशाभ्रम है कि वह कौन सा रास्ता चुने। अभिभावकों के अंतर्द्वंद्व ने नई पीढ़ी की सोच को विकृत कर दिया है और उस पीढ़ी के पास जो बचता है वह है आभासी दुनिया। आभासी दुनिया भ्रम को और प्रगाढ़ करती है नतीजा हमारे सामने है मनोदैहिक विकृतियों में बेतहाशा वृद्धि और उसके प्रभाव के चलते वर्तमान पीढ़ी का रोगों के संजाल में फंसना।यह समाज का स्याह पक्ष है जिस पर त्वरित ध्यान की जरूरत है वरना हम कहीं के नही बचेंगे।
देश में बढ़ती इन बिमारियों ने समाज में बेचैनी बढ़ा दी हैं।जिसको देखो वही नाना प्रकार की विकृतियों से ग्रसित है।अब टाइम मैनेजमेंट और योग तथा ध्यान की बातें होने लगी हैं। यह ध्यान और योग हमारे पहले किए जाने वाले शारीरिक श्रम और मेहनत का स्थान नही ले सकते।हम लाख नए नए रास्ते खोजें पर मुक्ति नहीं मिलने वाली।
तो करना क्या चाहिए यह अहम प्रश्न है।वैश्वीकृत समाज के लिए क्या रास्ता बचा है।हमें अपने पुराने तौर तरीकों पर लौटना होगा। हमें कृषि के स्वस्थ तरीकों को देखना होगा जिससे हमें खाने को शुद्ध सामग्री मिल सके। हमें अपने दिनचर्या को ठीक करना होगा। हमें अपने उन रास्तों को पुनः तलाशने की जरूरत है जो परिवार को परिवार बनाते थे।हमें उस अंतर्द्वंद्व से निकलना होगा जो आज आभासी दुनिया ने कृत्रिम रूप से हमारे मस्तिष्क को आच्छादित कर लिया है अन्यथा रुग्ण समाज रुग्ण विकास को जन्म देगा जिसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए।
(महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विवि सतना)

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