पड़ोसियों से संबंधः पुनर्विचार जरूरी

आखिरकार नाटकीय घटनाक्रम के बाद नेपाल में नई सरकार बनी है। आम चुनावों के एक माह बाद बनी नई सरकार का नेतृत्व प्रधानमंत्री के रूप में सीपीएन-माओवादी सेंटर के नेता पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ करेंगे। दरअसल, बीस नवंबर को हुए चुनावों में एक त्रिशंकु सदन की तस्वीर उभरी थी। यद्यपि इन चुनावों में पांच बार प्रधानमंत्री रह चुके व निवर्तमान प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा की नेपाली कांग्रेस सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में उभरी थी। ऐसे में देउबा प्रधानमंत्री बनने के सबसे बड़े दावेदार माने जा रहे थे। लेकिन प्रचंड ने नाटकीय घटनाक्रम के बाद प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ली है। चुनाव के दौरान नेपाली कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाले माओवादी नेता प्रचंड ने गठबंधन को धता बताकर पलटवार किया। जो हाल के दिनों में नेपाल में जारी राजनीतिक विरोधाभास का ही पर्याय है। प्रचंड ने पूर्व प्रधानमंत्री के.पी. ओली की पार्टी से समझौता कर लिया है। दोनों ढाई-ढाई साल के लिये सरकार का नेतृत्व करने पर सहमत हुए हैं। उल्लेखनीय है कि पिछले साल प्रचंड ने ओली से नाता तोड़ लिया था, जिसके बाद ओली की सरकार गिर गई थी। फिर प्रचंड ने प्रधानमंत्री पद के लिये शेर बहादुर देउबा का समर्थन किया था। राजशाही के पतन के बाद नेपाल में सत्ता के लिये संघर्ष और राजनीतिक अस्थिरता नेपाल का स्थायी परिदृश्य बन गया है। किसी भी प्रधानमंत्री के लिये दो साल से अधिक सत्ता में बना रहना मुश्किल होता रहा है। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि क्या प्रचंड व ओली की जोड़ी नेपाल को स्थिर सरकार देने में सक्षम हो पायेगी? बहरहाल, नेपाल के हालिया राजनीतिक घटनाक्रम के विशेष मायने हैं। इसकी वजह यह भी है कि हाल के दशक में चीन नेपाल में सत्ता बनाने व बिगाड़ने के लिये कूटनीतिक खेल खेलता रहा है। खासकर वामपंथी दलों में उसकी खासी दखल रही है यही वजह है कि नेपाल में हालिया राजनीतिक घटनाक्रम के चलते भारतीय कूटनीतिक क्षेत्रों में असहजता है। उल्लेखनीय है कि शेर बहादुर देउबा सरकार के दौरान भारत व नेपाल के रिश्तों में आशातीत सुधार हुआ था। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस साल मई में बुद्ध पूर्णिमा पर भगवान बुद्ध की जन्मस्थली लुम्बिनी का दौरा किया था। इस दौरान संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग संबंधी समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर दोनों देशों के सदियों पुराने रिश्तों को मजबूती देने के मकसद से किये गये। ऐसे वक्त में जब भारत हितैषी देउबा अब सत्ता से बाहर हो गये हैं तो भारत को नेपाल के साथ संबंधों को नये सिरे से परिभाषित करना होगा। इसकी वजह यह है कि सीपीएन-माओवादी सेंटर के नेता पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ व पूर्व प्रधानमंत्री के.पी.ओली का चीन के प्रति खास झुकाव रहा है। ओली गाहे-बगाहे भारत के खिलाफ आक्रामक होते रहे हैं। दरअसल, हाल के दिनों में क्षेत्र के हिमालयी देश चीन की कूटनीति के केंद्र में रहे हैं। चीन लगातार भारत की घेराबंदी करता रहा है। वहीं चीन का लक्ष्य इन हिमालयी राष्ट्रों में व्यापार, ऊर्जा और बुनियादी ढांचे के निर्माण पर ध्यान केंद्रित करना रहा है। नेपाल में चीन ने हाल के दिनों में बड़ा निवेश किया है। उसकी कोशिश नेपाल की निर्भरता भारत पर कम करने की रही है। कहा जाता है कि वर्ष 2018 में चीन ने प्रचंड और ओली के नेतृत्व वाली पार्टियों के एकीकरण में गहरी भूमिका निभाई थी। अब नई सरकार बनने के बाद चीन नेपाल की राजनीति में प्रभाव डालने के लिये इन नेताओं पर निर्भर रहेगा। ऐसे हालात में नई दिल्ली को काठमांडू में नई सरकार से बेहतर रिश्ते बनाने तथा पुराने विवादों को सुलझाने के लिये रणनीति में बदलाव लाने की जरूरत है। दोनों देशों के बीच शांति व मित्रता के लिये 1950 में की गई भारत-नेपाल संधि समेत विभिन्न समझौतों व संधियों की समीक्षा वक्त की दरकार है। 

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