एक देश, एक संहिता

गुजरात में चुनाव होने हैं। वहां की सरकार ने भी समान नागरिक संहिता पर एक विशेष समिति के गठन का निर्णय लिया है। इससे पहले उत्तराखंड ने समान नागरिक संहिता का मुद्दा उठाया था। दोनों राज्यों में भाजपा सरकारें हैं। उत्तराखंड में भाजपा को चुनावी जनादेश मिल चुका है, जबकि गुजरात में विधानसभा चुनाव की तारीखें अभी घोषित होनी हैं। हिमाचल और असम के भाजपाई मुख्यमंत्रियों ने गुजरात घोषणा का समर्थन किया है। उप्र की भाजपा सरकार भी इस मुद्दे पर विचार कर रही है। अगर देखा जाए तो भाजपा खेमे का यह कोई नया मुद्दा नहीं है। जनसंघ पार्टी की स्थापना से यह उनका वैचारिक मुद्दा रहा है, लिहाजा जनसंघ और भाजपा के चुनावी घोषणा पत्रों में उसे शामिल किया जाता रहा है। आरएसएस भी ‘एक देश, एक संहिता’ की खुलकर पैरोकारी करता रहा है। थोड़ा इतिहास पर नज डालें तो पता चलता है कि देश की आज़ादी से पहले संविधान सभा की बैठकों में भी इस मुद्दे पर विमर्श किया गया था। इन कवायदों का नतीजा यह रहा कि समान नागरिक संहिता को नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत संविधान में संरक्षण दिया गया। संविधान के अनुच्छेद 44 में भी स्पष्ट उल्लेख है कि राज्य सभी क्षेत्रों के नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करे। इसे संविधान की ‘समवर्ती सूची’ में रखा गया है। यानी राज्य या केंद्र सरकार अपनी इच्छा और विवेक से समान नागरिक संहिता लागू कर सकती हैं। दोनों सरकारों को समान संवैधानिक अधिकार हैं। ऐसी व्यवस्था होने के बावजूद यह मुद्दा आज तक लटका पड़ा है। इसकी आड़ में हिंदू-मुस्लिम सियासत की गंध जरूर आती है। अलबत्ता मोदी सरकार के आठ साल, वाजपेयी सरकार के छह साल, वीपी सिंह सरकार के समर्थक सहयोगी और 1977 में केंद्र में जनता पार्टी सरकार के पौने तीन साल के बावजूद जनसंघ और बाद में भाजपा ‘एक देश, एक संहिता’ की संवैधानिक व्यवस्था स्थापित नहीं कर सकी। लिहाजा सरकारों की इस घोषणा पर सवाल और संदेह तो स्वाभाविक है। दरअसल ‘एक देश, एक संहिता’ की पृष्ठभूमि में कानूनन एकरूपता की सोच होनी चाहिए। विवाह, तलाक, गोद लेने, उत्तराधिकार, विरासत, गुजारा-भत्ता आदि के संदर्भ में संवैधानिक संहिता यानी विधान की स्थिति एक जैसी होनी चाहिए। हिंदुओं में कमोबेश एकरूपता लाई जा चुकी है। उनके अलावा सिख, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई और यहूदी समुदायों को भी समान नागरिक संहिता पर कोई गंभीर आपत्ति नहीं है, लेकिन जैसे ही यह मुद्दा उठाया जाता है, तो एक निश्चित मुस्लिम जमात आवाज उठाने लगती है। कि उनके पर्सनल लॉ पर आघात किया जा रहा है। इसको अलग करके देखा जाए तो  दुनिया में अमरीका, तुर्की, मिस्र, सूडान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, आयरलैंड, इंडोनेशिया, मलेशिया, जर्मनी, फ्रांस आदि देशों में समान नागरिक संहिता लागू है, जबकि कई देश तो मुस्लिम बहुल हैं। दरअसल भारत में ‘एक देश, एक संहिता’ कानूनन लागू करनी है, तो केंद्र सरकार संसद के जरिए प्रयास करे। विधि आयोग अभी तक यह रपट देता रहा है कि देश में समान नागरिक संहिता की जरूरत ही नहीं है। अब भारत सरकार ने सर्वोच्च अदालत में हलफनामा देकर कहा है कि अब वह यह मुद्दा 22वें विधि आयोग के समक्ष रखेगी। जब कानूनन यह स्थिति है, तो राज्यों के स्तर पर इस मुद्दे को लेकर समितियां नहीं बनाई जानी चाहिए अथवा प्रस्ताव पारित करना बेमानी है। बेशक संविधान ने शक्तियां दी हैं, लेकिन उनका गलत इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। यदि अलग-अलग राज्य में अपनी-अपनी संहिताएं बनाई जाएंगी, तो देश में अराजकता फैल सकती है। अखंड गणराज्य ‘रियासतों का देश’ लगेगा। यकीनन ‘एक देश, एक संहिता’ लागू होनी चाहिए, लेकिन देशव्यापी परामर्श के बाद ही ऐसा किया जाना चाहिए।

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