चुनावी मौसम में रेवड़ी की घोषणा देश के सियासतदानों का पुराना शगल है। अब जब इस संस्कृति पर सुप्रीमकोर्ट ने गंभीर चिंता जताई है तो सियासी गलियारे में चितन शुरू होने के साथ ही आम जनता भी चैतन्य हुई है। चुनावी पर्व में मुफ्त तोहफे बांटे जाने की घोषणाएं सभी राजनीतिक दल बढ़ चढक़र करते रहे हैं। लेकिन हकीकत इसके ठीक उलट होती है। जीतने के बाद कई जनप्रतिनिध पूरे समय क्षेत्र से गायब रहते हैं। बावजूद मतदाता को इस प्रलोभन में लुभाकर राजनीतिक दल और प्रत्याशी अपना स्वार्थ साधने में सफल हो जाते हैं। परंतु अब सर्वोच्च न्यायालय ने इन चुनावी रेवडिय़ां बांटे जाने पर गंभीर चिंता जताई है। न्यायालय ने केंद्र सरकार, नीति आयोग, वित्त आयोग, भारतीय रिर्जव बैंक और अन्य सभी हितधारकों को इस गंभीर मसले पर विचार-मंथन करने और रचनात्मक सुझाव देने का आग्रह किया है। साथ ही एक विशेषज्ञ निकाय बनाने का निर्देश भी दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुफ्त के इन उपहारों पर लगातार चिंता जता रहे हैं। अब तक ये लोक-लुभावन वादे भाजपा समेत सभी दल जन कल्याणकारी योजनाओं के बहाने करके, जीतने पर अमल में लाते रहे हैं। हालांकि 70 प्रतिशत वादे पूरे नहीं हो पाते हैं। प्रधान न्यायाधीश एनवी रमणा, कृष्ण मुरारी और हिमा कोहली की पीठ ने इस मुद्दे के समाधान के लिए केंद्र सरकार को उपाय सुझाने हेतु एक विषेशज्ञ पैनल गठित करने का भी निर्देश दिया है। यह न्यायालय भाजपा नेता एवं अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है। उपाध्याय ने राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को लुभाने के लिए दिए जाने वाले उपहारों की घोषणाओं पर प्रतिबंध लगाने और ऐसे दलों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करने की मांग की है। पीठ ने कहा है कि यह गंभीर मुद्दा है और चुनाव आयोग या सरकार यह नहीं कह सकते हैं कि वे इसमें कुछ नहीं कर सकते। केंद्र सरकार की ओर से पेश महाधिवक्ता तुशार मेहता ने कहा कि ‘सैद्धांतिक रूप से याचिकाकर्ता की दलीलों का समर्थन करते हैं। इन लोक-लुभावन वादों के दो तरह के प्रभाव देखने में आते हैं। एक तो ये मतदाताओं के निष्पक्ष निर्णय को प्रभावित करते हैं और दूसरे, इन्हें पूरा करने के लिए अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है। अतएव इस पर चुनाव आयोग से भी सुझाव लिए जाने चाहिए। फिलहाल न्यायालय ने आयोग को शामिल नहीं किया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब चुनाव नीतियों और कार्यक्रम की बजाय प्रलोभनों का फंडा उछालकर लड़े जाने लगे हैं। राजनेताओं की दानवीर कर्ण की यह भूमिका स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की जड़ों में मट्ठा घोलने का काम कर रही है। अपना उल्लू सीधा करने के लिए मतदाता को बरगलाना आदर्श चुनाव संहिता को ठेंगा दिखाने जैसा है। सही मायनों में वादों की घूस से निर्वाचन प्रक्रिया दूषित होती है, इसलिए इस घूसखोरी को आदर्श आचार संहिता के दायरे में लाना जरूरी है।
चुनावी मौसम में रेवड़ी की घोषणा देश के सियासतदानों का पुराना शगल है। अब जब इस संस्कृति पर सुप्रीमकोर्ट ने गंभीर चिंता जताई है तो सियासी गलियारे में चितन शुरू होने के साथ ही आम जनता भी चैतन्य हुई है। चुनावी पर्व में मुफ्त तोहफे बांटे जाने की घोषणाएं सभी राजनीतिक दल बढ़ चढक़र करते रहे हैं। लेकिन हकीकत इसके ठीक उलट होती है। जीतने के बाद कई जनप्रतिनिध पूरे समय क्षेत्र से गायब रहते हैं। बावजूद मतदाता को इस प्रलोभन में लुभाकर राजनीतिक दल और प्रत्याशी अपना स्वार्थ साधने में सफल हो जाते हैं। परंतु अब सर्वोच्च न्यायालय ने इन चुनावी रेवडिय़ां बांटे जाने पर गंभीर चिंता जताई है। न्यायालय ने केंद्र सरकार, नीति आयोग, वित्त आयोग, भारतीय रिर्जव बैंक और अन्य सभी हितधारकों को इस गंभीर मसले पर विचार-मंथन करने और रचनात्मक सुझाव देने का आग्रह किया है। साथ ही एक विशेषज्ञ निकाय बनाने का निर्देश भी दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुफ्त के इन उपहारों पर लगातार चिंता जता रहे हैं। अब तक ये लोक-लुभावन वादे भाजपा समेत सभी दल जन कल्याणकारी योजनाओं के बहाने करके, जीतने पर अमल में लाते रहे हैं। हालांकि 70 प्रतिशत वादे पूरे नहीं हो पाते हैं। प्रधान न्यायाधीश एनवी रमणा, कृष्ण मुरारी और हिमा कोहली की पीठ ने इस मुद्दे के समाधान के लिए केंद्र सरकार को उपाय सुझाने हेतु एक विषेशज्ञ पैनल गठित करने का भी निर्देश दिया है। यह न्यायालय भाजपा नेता एवं अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है। उपाध्याय ने राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को लुभाने के लिए दिए जाने वाले उपहारों की घोषणाओं पर प्रतिबंध लगाने और ऐसे दलों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करने की मांग की है। पीठ ने कहा है कि यह गंभीर मुद्दा है और चुनाव आयोग या सरकार यह नहीं कह सकते हैं कि वे इसमें कुछ नहीं कर सकते। केंद्र सरकार की ओर से पेश महाधिवक्ता तुशार मेहता ने कहा कि ‘सैद्धांतिक रूप से याचिकाकर्ता की दलीलों का समर्थन करते हैं। इन लोक-लुभावन वादों के दो तरह के प्रभाव देखने में आते हैं। एक तो ये मतदाताओं के निष्पक्ष निर्णय को प्रभावित करते हैं और दूसरे, इन्हें पूरा करने के लिए अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है। अतएव इस पर चुनाव आयोग से भी सुझाव लिए जाने चाहिए। फिलहाल न्यायालय ने आयोग को शामिल नहीं किया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब चुनाव नीतियों और कार्यक्रम की बजाय प्रलोभनों का फंडा उछालकर लड़े जाने लगे हैं। राजनेताओं की दानवीर कर्ण की यह भूमिका स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की जड़ों में मट्ठा घोलने का काम कर रही है। अपना उल्लू सीधा करने के लिए मतदाता को बरगलाना आदर्श चुनाव संहिता को ठेंगा दिखाने जैसा है। सही मायनों में वादों की घूस से निर्वाचन प्रक्रिया दूषित होती है, इसलिए इस घूसखोरी को आदर्श आचार संहिता के दायरे में लाना जरूरी है।
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