दोष केवल औरत का ही नहीं होता

 बिना सोचे समझे सारा दोष उस पर थोप दिया जाता 

मेरे एक परिचित ने अपनी बेटी की शादी में दिल खोलकर खर्च किया था। लड़की भी पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा थी। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था पर चार-पांच वर्षों तक 'मां' न बन पाने के कारण ससुराल वाले उसे ताने देने लगे और स्थिति एक दिन यहां तक आ गई कि उसे 'बांझ' तक कह डाला गया।

यह एक अकेला प्रकरण नहीं है। आये दिन ऐसी समस्यायें आती रहती हैं लेकिन शादी के चार-पांच वर्षों तक 'मां' न बन पाने के कारण उसे शंका से देखा जाना कहां तक उचित है। इसके कई कारण हो सकते हैं। ज्यादातर कामकाजी पति-पत्नी  जल्द बच्चे के झमेले में नहीं पड़ना चाहते। इसके अलावा यदि कोई अन्य कारण अथवा शारीरिक दोष अथवा कमी है तो अकेले नारी को ही दोषी ठहराना कहां तक उचित है। दोष तो पुरूष में भी हो  सकता है परन्तु पुरूष प्रधान समाज में नारी की सुनता ही कौन है और बिना सोचे समझे सारा दोष उस पर थोप दिया जाता है।

आज की भागमभाग जिंदगी में पति-पत्नी दोनों ही अगर कामकाजी होते हैं तो वे कई वर्षों तक इस झमेले में नहीं पडऩा चाहते। इसके पीछे उनकी सोच होती है कि आने वाली संतान उनके काम में बाधा उत्पन्न कर सकती है। कुछ लोगों की सोच होती है कि संतान उनके वैवाहिक जीवन के आनन्द को कम कर सकती है लेकिन वे भूल जाते हैं कि संतान के आने से वैवाहिक जीवन का आनंद कम नहीं होता बल्कि और बढ़ जाता है लेकिन फिर भी लोग अपनी सोच और विचारधारा के आगे दूसरों की सुनते ही कहां हैं।


शादी के बाद कुछ नवविवाहितायें आपसी सहमति से 'ओरल पिल्स' का इस्तेमाल करती हैं ताकि वैवाहिक जीवन का आनंद कम न हो। भूल या संयोगवश यदि पहली संतान 'गर्भ' में आ गई तो 'गर्भपात' तक करवा देती हैं। केवल अपने स्वार्थ के कारण ऐसा किया जाना कहां तक उचित है क्योंकि पहली संतान के गर्भ में आने पर यदि गर्भपात करवाया जाता है तो विशेषज्ञों के अनुसार 'बांझपन' का खतरा कई गुना बढ़ जाता है।


कुछ लोग इसे नसीब अथवा भाग्य का खेल भी कह देते हैं। नारी का 'मां' बनना एक सपना बनकर रह जाता है। ऐसे में पुरूष अपनी कमी को छिपाते हुए सारा दोष स्त्री पर थोप देते हैं। स्त्री सहनशील और दयालु प्रकृति  की होने के कारण सारी सच्चाई जानते हुए भी कह नहीं पाती और चुपचाप ताने, अपमान व तिरस्कार सहन करती रहती है।


दूसरी ओर यदि किसी परिवार में लड़की के जन्म के बाद पुन: लड़की का जन्म होता है अथवा पहली संतान के रूप में लड़की पैदा होती है तो भी नारी को ही अपमान, तिरस्कार और तानों का सामना करना पड़ता है। सोचें यदि पहली संतान लड़की अथवा किसी परिवार में लड़की के बाद लड़की पैदा होती है तो इसमें अकेले नारी का क्या दोष बल्कि इसमें किसी का दोष नहीं।


यह सारी सृष्टि की संरचना है और जहां तक आरोप अथवा दायित्व ठहराने की बात आती है तो 'संतान' के लिंग निर्धारण का उत्तरदायित्व पुरूष का है। स्त्री की इसमें कोई भूमिका नहीं है। ऐसी स्थिति में यदि लड़की पर लड़की पैदा होती है तो इसमें स्त्री का क्या दोष।

समझदार लोग जो लड़के और लड़की में भेद नहीं मानते, ऐसे लोग तनाव की स्थिति आने ही नहीं देते। अत: समझदारी इसी में है कि लड़कियों के पैदा होने पर पत्नी का तिरस्कार और अपमान करने की जगह उसको सहानुभूति और सहयोग दें, उसका हौसला बढ़ायें क्योंकि आज के दौर में चाहे लड़का हो या लड़की, दोनों एक समान हैं और अपने परिवार को हर हाल में सीमित रखने में ही भलाई और समझदारी है।

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