आसान है डिप्रेशन से छुटकारा पाना

 गिरते स्वास्थ्य का ख्याल कर चिकित्सक से उचित सलाह

New Delhi-आधुनिक सभ्यता में विकसित मानसिकता वाले लोगों ने उपभोक्तावाद को जन्म दिया है जिससे उनकी भागदौड़ भरी जिंदगी में दिनचर्या भी परिवर्तित हो चुकी है। इससे भारी व्यवस्था बढऩे से मानवीय संबंधों में हृास, आर्थिक अभाव एवं बढ़ती आकांक्षाओं के साथ ही आगे बढऩे के कम अवसर मिलने जैसी कई बातें दृष्टिगोचर होने से मनुष्य पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ रहा है।

दु:ख व मानसिक आघात पहुंचने पर शोक में डूबे रहने जैसी कुछ परेशानी की स्थिति में डिप्रेशन के आरंभिक चरणों की शुरूआत होती है। साधारणत: कई आकस्मिक दुर्घटनाओं से निराशा एवं उदासीनता की भावना घेरने लगती है लेकिन क्या इसे डिप्रेशन माना जा सकता है?

मनोचिकित्सक बताते हैं कि मनुष्य में कई माह तक उदास रहने की अवस्था में सुधार न हो तो इसका सीधा अर्थ हम डिप्रेशन की शुरूआत से लगाते हैं। अगर निराशा व उदासीनता की अवस्था बगैर किसी गंभीर दुख अथवा सदमे के हो तो समस्या और अधिक जटिल हो सकती है। ऐसी स्थिति में दो हफ्तों से अधिक समय तक व्यक्ति अपने निजी जीवन में निराश व उदास अनुभव करता हो तो उसे निश्चित तौर पर विशेषज्ञ चिकित्सक की सलाह की जरूरत है।

मनोविशेषज्ञों के अनुसार डिप्रेशन के कुछ लक्षण होते हैं और इन लक्षणों के प्रकट होने से इसकी आशंका व्यक्त की जा सकती है। प्राय: सामान्य गतिविधियों से बिलकुल अलग अपने आपको एक शून्यता अथवा रिक्तता की भावना प्रबल होने का अनुभव मनुष्य की दिनचर्या का आवश्यक हिस्सा बन जाये तो वह डिप्रेशन का शिकार हो जाता है।

ऐसे लक्षण के दृष्टिगोचर होने से और वजन में परिवर्तन के बरकरार रहने से स्वास्थ्य में गिरावट के साथ ही अनिद्रा या अत्यधिक नींद आना, बेचैनी या आलस्य, कम मेहनत के अनुपात में अधिक थकान अनुभव करना, स्वयं को बेकार तथा अयोग्य समझते हुए निर्णय लेने में कठिनाई महसूस करना तथा रह-रह कर आत्महत्या से संबंधित कल्पना या विचार कौंधना इत्यादि है।

डिप्रेशन के शिकार व्यक्ति को असमय सिर में दर्द होना, खाना न पचना, शारीरिक थकान इत्यादि कई लक्षण एक साथ देखने को मिलते हैं। एक अनुमान के मुताबिक लगभग 15 प्रतिशत गंभीर डिप्रेशन से पीडि़त व्यक्ति आत्महत्या के शिकार हो जाते हैं और आत्महत्या के अनेक मामलों में से यह भी एक मामला है जिस पर ध्यान देना अत्यन्त जरूरी है।

डिप्रेशन के मामले में यह भी देखने में आया है कि इसके शिकार लोग एक वर्ष के अंदर स्वत: ठीक हो जाते हैं हालांकि इस दौर में उन्हें अपने गिरते स्वास्थ्य का ख्याल कर चिकित्सक से उचित सलाह लेनी चाहिए।

इस रोग से पीडि़त व्यक्ति को अधिक लंबे समय तक जूझने की जरूरत नहीं महसूस होती जिसके लिए डायग्नोसिस एवं सामान्य चिकित्सा से उक्त अवधि के रोग की तीव्रता पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

 साधारणत: दवा एवं मनोचिकित्सा के सम्मिश्रण से महज कुछ ही हफ्तों में इसे ठीक किया जा सकता है। ऐसे में उचित चिकित्सा के बाद पीडि़त व्यक्ति शारीरिक एवं भावनात्मक लक्षणों से पूरी तरह मुक्त हो जाता है।

इस बीमारी से दूर रहना स्वयं मनुष्य के वश की बात है। वह ऐसी नौबत ही न आने दे जिससे उसे इसका शिकार होना पड़े। वैसे भी आधुनिक जीवन शैली ही अधिकांश तौर पर इस समस्या को बढ़ाने में सहायक रहे हैं।

महानगरीय सभ्यता में निवास करने वाले अधिकांश लोग इस समस्या से ग्रसित पाये गये हैं जिनकी दैनिक दिनचर्या ही दिन प्रतिदिन परेशानी का सबब बनती जा रही है। इस पर गंभीरता से विचार कर ध्यान देने की जरूरत है जिससे इसकी वृद्धि पर अंकुश लग सके।

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