हमारे गांव: तब और अब

- डा.ओपी चौधरी
पनघट, पगडंडी,पैड़ा,डगर, खोर, डहर, मेड़ –डांड, हल –जुवाठ, सैल,पैना,हेंगा,नाधा, हरजोत्ता, जाबा, हर्ष, फार, खोंपी, पचवासी, कुदाल, फावड़ा, खुरपी, खुरपा, टेंगारा, बांकी, बरारी, रसरी, नाथी,पगहा, गेराव, मोहड़ी, सिंघौटी, खूंटा, मुद्धी, खुंटा, सकरमुद्धी, बैठनी, कूंड–बरहा, चरखी, हौदा, धन्न, उबहन,जगत, घिर्री, गगरा, गुलौर, कईन, झुकवा, हंकवा, पकवा, बोझवा, सईका, सईकी, हौदी, गगरी, परयी, पुछिया, कड़ाह–कड़ाही, कोल्हू, कातर, तौला, कूड़ा, कमोरी, रहट, पुरवट, बेड़ी, सैर, घोल, ताल, पोखरा, गड़ही, छान –छप्पर, भुजिया, बहुरी,गोजई, जौ–मटरा, सतुआ, पंजीरी आदि अनेक शब्द जो मुझे अभी इससे ज्यादा याद नहीं आ रहे हैं, लेकिन बचपन में गांवों में लोग प्रयोग में लाते थे, सभी का उपयोग समय समय पर होता था। मेरी उत्कट अभिलाषा है कि हमारी यह पीढ़ी जो हमारे बाद की है अपनी विरासत को समझे और जाने की किस तरह से पूर्वजों ने अभाव में भी सदभाव को, भाई चारा को कायम रखा। जैसे-जैसे हम भौतिक सुख प्राप्त करने में लीन होते गए हमने अपनी गंवई, देशी और विशुद्ध भारतीय संस्कृति, अल्हड़पन, बेपरवाही सभी को विसारते गए और धन तो अर्जित कर लिए लेकिन कहीं न कहीं अपने मूल्य, विश्वास, नैतिकता, अपनत्व, सामूहिकता, सहयोग, सामाजिक समरसता, सदभावना खोते गए या उनमें क्षरण होता गया।
वैभव में सुख और आनंद तलाश करने लगे लेकिन वास्तव में इन सबसे कोसों दूर होते गए। अब गांवों में भी चिंता, अवसाद, नैराश्य, कुंठा, तनाव जैसी मानसिक बीमारियां अपना पांव पसार चुकी हैं। बीपी, सुगर सभी अब आम बात हो गई है। ऐसा क्यों हुआ यह विचारणीय है। हम भौतिकता के साधन जुटाने में अपनी सबसे बड़ी धरोहर परिवार और समाज को उपेक्षित करते गए। चौपाल, बाग- बगीचे, ताल - पोखरे कम होते गए, एक ही कुएं से कई परिवार के लोग पानी भरते और पीते थे,जहां प्रायः लोग इकट्ठा हुआ करते थे। आपस में बातचीत होती रहती थी,जो एंटीबॉडी का काम करती थी। अब हम दवाओं से इम्यूनिटी बढ़ा रहे हैं।जहर से जहर काटने का प्रयास हमें मंहगा पड़ रहा है।
            यह पढ़ते समय आपको लग रहा होगा की मैं आधुनिकता का या विकास विरोधी हूं, ऐसा कदापि नहीं है, किंतु अपने स्वास्थ्य से, परिवार से समझौता कर विकास हासिल कर भौतिक सुख तलाशना कहां तक की होशियारी है। हमें यथार्थ में धरातल पर पैर जमीन पर टिका कर रहना होगा।नीचे जमीन से पांव उतना ही ऊपर ले जाए जिससे आसानी से नीचे आ सकें,आकाश की ओर बढ़ें लेकिन उतना ही कि नीचे धड़ाम से धरती पर न आना पड़े।



वास्तव में हम सुख और आनंद की तलाश में रहते हैं और इस भ्रम में कि धन आयेगा तो यह चीजें अपने आप आ जायेगी,इसी मुगालते में अंधी दौड़ में भागते हैं, घर, परिवार,नाते – रिश्ते, यार –दोस्त, गांव –ज़वार सभी पीछे छूट जाते हैं और जब हम वापसी की बात सोचते हैं तो देर हो चुकी होती है फिर क्या न माया मिली न राम, अब क्या होगा जब चिड़िया चुग गई खेत?
इस दौर में बातचीत करते रहना और दूसरों की भी सुनते रहना हमारे मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी है। हमें यह समझना है कि किसी से अपने दिल का हाल कहने का उद्देश्य हमेशा समस्या का समाधान खोजना ही नहीं होता है, बल्कि अपने मन में चल रहे विचारों के तूफान को शांत करना है, जिससे आप बेहतर मानसिक स्थिति में आएं और हल्का महसूस कर सकें।प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड ने इसे कैथार्सिस कहा है, मतलब अपनी बात कह देने से मन का बोझ उतर जाता है और व्यक्ति हल्का महसूस करने लगता है।
ठीक ऐसे ही जब यहां कॉलेज के काम से थक या ऊब जाता हूं तो घर(गांव)चल देता हूं। वहां एक रात बिताकर भी तरोताजा हो जाता हूं।कभी कभी संगम तीरे दिनेश बाबू (डा दिनेश सिंह, उप मुख्य चिकित्सा अधिकारी, अपने दामाद) के पास चला जाता हूं। यह शक्ति है बातचीत की अपनों से मिलने की, हाले दिल बयां करते रहने से।किसी से बातचीत करने में आपको एक अंतर्दृष्टि मिलती है,जिससे यह भी समझ में आ जाता है कि सही नजरिया क्या है। हम चाहे जहां भी हो लेकिन जड़ों से अर्थात अपने परिवार, गांवों व मोहल्लों से, गलियों से जुड़े रहें।
- एसोसिएट प्रोफेसर मनोविज्ञान विभाग
श्री अग्रसेन कन्या पी जी कॉलेज वाराणसी

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