दलों की विचारधाराएं एवं उनकी प्रभावशीलता
- प्रो. नंदलाल मिश्र
आज भारतवर्ष की पहचान और उसकी अस्मिता पहले की तुलना में कहीं अधिक सशक्त और प्रखर हुई है इसमें कोई शंका नहीं है। सदियों तक गुलामी की मार झेल चुका भारत आज सीना ताने खड़ा है। इसमें विभिन्न समयों में बनने वाली सरकारों ने समय समय पर अपने योगदानों से देश को खड़ा करने का प्रयास किया है। मुस्लिम शासकों और अंग्रेजों ने जिस कदर देश को लूटने का प्रयास किया और लूटा उससे हमारी एकमात्र संस्कृति लड़ती रही और यदि आज हम विजयी मुद्रा में खड़े हैं तो उसी की वजह से।
एक ही समय में धर्म के आधार पर देश का बंटवारा और स्वतंत्रता दोनों हमें मिले। देश का विभाजन अपने आप में एक बड़ा हादसा था। लाखों लोग मरे और बेघर हुए। हमारी समृद्धता की गठरी अंग्रेज अपने साथ ले गए। हम बेहाल और उद्विग्न बने रहे पर हमारे सांस्कृतिक मूल्यों ने हमें रास्ता देना शुरू किया और देश मे बनी सरकार ने धीरे धीरे ही सही देश को जिंदा रखने और कुछ अतिरिक्त उत्पादन के लिए लोगों को जगाना शुरू कर दिया। हम अपने देश मे बहुत कुछ बनाने लगे और कठिन परिस्थिति होते हुए भी हम अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करते रहे।पंडित जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, श्रीमती इंदिरा गांधी मोरार जी देशाई, राजीव गांधी सभी प्रधान मंत्रियों ने देश को आगे बढ़ाने में कोई कोर कसर नही छोड़ी। यह नब्बे तक का दशक था।
गरीबी से लोगो को निकालने में बहुत सारी त्रुटियां भी हुई पर देश आगे बढ़ता रहा। शनै शनै हम स्वावलंबन की तरफ अग्रसर होने लगे। हमारा लोकतंत्र एक सफल लोकतंत्र के रूप में फलता-फूलता चला गया। हम एक मजबूत और परिपक्व लोकतंत्र बनते चले गए। इस लोकतंत्र को गढ़ने में हमारे उन नेताओं की मेहनत और उनके सांस्कृतिक मूल्य थे जो उन्होंने देश सेवा में अहर्निश लगाए रखा। बहुत से लोगों का यह मानना भी है कि उन लोगों ने जो किया उससे बेहतर भी किया जा सकता था। शायद यह सही भी है पर उनके संघर्षों और उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
धीरे धीरे देश में ऐसे नेताओं का अभ्युदय होना शुरू हुआ जिनमे लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं की कमी थी। ऐसे प्रतिनिधि चुनकर आने लगे जिन्होंने जीवन मे देश के लिए कभी संघर्ष नहीं किया न ही सामाजिक सरोकार के लिए त्याग किया। हाँ समाज में अपने रसूख और अपने दबंगई के बल पर वे किसी न किसी पार्टी से चिपक गए। ऐसे लोग जब संसद में पहुंचने लगे तो वे अपने ही सरकार के खिलाफ कार्य करते नजर आए। करोड़ो करोड़ो के घोटाले सामने आते रहे और लोकतांत्रिक मूल्यों में क्षरण होता चला गया। नतीजा यह हुआ कि जनता अवसर पाते ही ऐसे लोगो और ऐसे दलों को दरकिनार करती चली गयी।
आप याद कीजिये उन्नीस सौ नब्बे के दशक के बाद जल्दी जल्दी सरकारें बनती और गिरती रहीं।यह वही दौर था जहां जनता अच्छा नेतृत्व और अच्छी सरकार का मनोबल पाल रही थी पर राजनीतिक दलों ने ऐसा कोई विकल्प जनता के सम्मुख नहीं रखा जो उन्हें अच्छे भविष्य के लिए आश्वस्त कर सकते हों। एक अच्छा विकल्प पंडित अटल विहारी बाजपेई के रूप में देश को मिला। यह अच्छा विकल्प क्यों था क्योंकि इसमें हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को समृद्ध करने की एक झलक दिखलाई पड़ी।
फिर चुनाव हुए अलग अलग विचारधाराओं पर जीत हासिलकर क्षेत्रीय दल कांग्रेस के नेतृत्व में पुनः सरकार बनाने में सफल हुए। चूंकि कांग्रेस के पास इतना संख्या बल नहीं था कि वह अपना एजेंडा लागू कर पाती क्षेत्रीय दल कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार में रहते घोटाले दर घोटाले करते रहे। हालांकि देश की बागडोर एक विद्वान अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के हाथ में थी पर उनका रहना और न रहना क्षेत्रीय दलों के गणित पर ही निर्भर था। तमाम घोटालों के बावजूद मनमोहन सिंह ने देश को एक नई दिशा दी और व्यापक सुधारों को लागू किया।
चूंकि मनमोहन सिंह देश की सत्ता लगातार दस साल सम्हाले रहे और इनके सहयोगी दलों द्वारा लूट खसोट चलती रही। अन्ना हजारे ने तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए लोकपाल की नियुक्ति को लेकर आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया। देश की जनता उनके साथ उठ खड़ी हो गयी। इधर भारतीय जनता पार्टी जो पुराने नारों के साथ अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रही थी। नेतृत्व में भी कोई नवाचार नहीं रह गया था। अन्ना के अनशन से देश का राजनैतिक वातावरण तत्कालीन सरकार के खिलाफ होकर परिवर्तन की तरफ झुक गया था। तीन बार से लगातार गुजरात की सत्ता पर काबिज मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा को एक नए सिरे से तैयार कर नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। चुनाव में जबरदस्त और धुँवाधार प्रचार के माध्यम से परेशान जनता को अपने पक्ष में मोड़ लिया। परिणाम वही हुआ जो जनता चाहती थी। मोदी जी देश के प्रधान मंत्री बने और अभी हैं।
कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता को लेकर चलती रही। स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर नब्बे के दशक तक कमोवेश ऐसे नेता कांग्रेस में रहे जिनमे कुछ राजनैतिक मूल्य थे और उन्होंने देश को नेतृत्व दिया। पर मंडल कमंडल की उभरती तस्वीर और अंतर्निहित शक्ति ने देश की राजनैतिक दिशा को बदलने में सफलता प्राप्त की। इधर देश में सांस्कृतिक-राजनैतिक राजनीति निकल पड़ी। तुष्टिकरण ने हिंदुओं को जगाना शुरू कर दिया।हिन्दू लामबंद हुए और हिन्दू अपने लक्ष्यों को कँहा तक पा चुके यह कहना थोड़ी जल्दबाजी होगी और हिंदुओं का लक्ष्य है क्या इसको भी बताना थोड़ा दुरूह कार्य है।
तीसरी विचार धारा वाम पंथी है जो आज बिल्कुल किनारे हो चुकी है। चौथी विचारधारा समाजवाद के इर्द गिर्द घूमती है जो लोगो की मौलिक आवश्यकताओं और मूलभूत जरूरतो एवं अस्तित्ववाद को पालती पोषती है।
अब हमारे सामने कुछ स्थितियां स्पष्ट हो चुकी हैं। एक पार्टी धर्म निरपेक्षता को अपना औजार बनाये हुए है तो दूसरी हिंदुत्व को। तीसरी विचारधारा वर्तमान में मंडल के आगे पीछे घूमती है, जिसमें जाति और आरक्षण प्रमुख तत्व हैं। कभी जातिगत जनगणना तो कभी आरक्षण को औजार बनाकर मैदान में उतरती है। इन विचारधाराओं में दो विचारधाराएं ऐसी हैं जो सीधे तौर पर जनता को प्रतिक्रियावादी बना देती हैं।जिसमे हिंदुत्व और जातिगत राजनीति आती है। जनता का प्रतिक्रियावादी होना उसकी क्रियाशीलता को दर्शाता है। जब बात अस्तित्व की आती है तो धर्म गौड़ हो जाता है और जनता अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए किसी भी हद तक चली जाती है।
चाहे जो विचारधारा हो वे देश की प्रगति को अपरिहार्य मानती है। देश एक आक्रामक मूड में दिख रहा है। आक्रामकता में त्रुटियों की गुंजाइश अधिक होती है। किसी भी कीमत पर हमारी प्रगति प्रभावित नहीं होनी चाहिए। यही समय की मांग है और यही समय का तकाजा भी है।
(महात्मा गांधी ग्रामोदय विश्वविद्यालय, चित्रकूट सतना।)
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