विविधता में परिलक्षित होती एकता

- गिरीश्वर मिश्र
आए दिन यह तर्क किसी न किसी कोने से तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग पेश करता रहता है कि भारत की विविधता की अनदेखी हो रही है। वह बड़े निश्चय के साथ अपना सुचिंतित संदेह कुछ इस तरह से व्यक्त करता है मानो ‘भारत’ कोई एकल रचना न थी, न है और न उसे होना चाहिए। इस तरह की सोच की प्रेरणाएँ विभिन्न अवसरों पर उभार लेती रहती हैं और भारत की अंतर्निहित स्वाभाविक एकता को संदिग्ध बना कर उसे प्रश्नांकित करने की चेष्टा करती रहती हैं। भारत की विविधता ही उसका स्वभाव है, ऐसा रेखांकित करते हुए और उसी का बखान करते हुए एकता की समस्या खड़ी की जाती है और उसको पैदा करने की संभावना तलाशी जाती है । इस तरह की स्थापना के लिए भाषा, धर्म, जाति, रंग, वेश-भूषा, खान-पान, क्षेत्र और प्रथा आदि को दिखाया जाता है। नाना प्रकार की विविधताओँ को विशदता से पहचनवाते हुए भारत एक विविधता का नाम है, यह प्रतिपादित करते हैं।



यह सच है कि दृश्य जगत में मिलने वाली विविधता की कोई सीमा नहीं है और न हो ही सकती है। हम सभी देखते हैं क़ि प्रत्येक विविधता से कुछ और विविधताएँ भी पैदा होती रहती हैं। विविधताओं का विस्तार हर किसी का प्रत्यक्ष अनुभव है। हम अक्सर पाते हैं कि एक ही माता-पिता की अनेक संतानें होती हैं जो स्वभाव और रंग-रूप आदि विशेषताओं में एक-दूसरे से भिन्न भी होती हैं। यहाँ तक कि जुड़वां बच्चों में भी अंतर पाए जाते हैं पर उस भिन्नता से माता-पिता से उनका निरंतर सम्बन्ध कमतर या असंगत नहीं हो जाता। इस सामान्य अनुभव को किनारे रख भारत की एकता को नक़ली और प्रायोजित घोषित करते हुए विविधता के शास्त्र को बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ाने में हमारे प्रगतिशील विचारक महानुभाव सतही जानकारियों का अम्बार लगाते हुए विविधताओं की नई-नई क़िस्में खड़ी करते नहीं थकते। उनका स्थायी भाव यही रहता है कि विविधता प्राणदायी है और उसकी हर क़ीमत पर रक्षा की जानी चाहिए (विविधता बची रहेगी तो एकता आ ही जायगी!) ।
विविधता का उत्सव मनाते हुए इन विशेषज्ञों को विविधता ही मूल लगती है इसलिए वे विखंडन में ही भविष्य देखते हैं। वे यह यह भूल जाते हैं कि विविधता भी किसी एकता के सापेक्ष ही हो सकती है और सोची-समझी जा सकती है। यदि मूल का उच्छेदन करते हुए सिर्फ प्रकट विविधता पर ही ध्यान देते रहेंगे तो सत्य का केवल आंशिक और अधूरा परिचय होगा और गलत निष्कर्ष पर पहुंचा जायगा। इस अधकचरे ज्ञान से उपजने वाली विखंडन की प्रक्रिया आत्मघाती हो जाती है।
वास्तविकता यह है कि भारत की विविधताएँ ख़तरे में हैं, इसका नारा देते हुए विविधताओं का उपयोग सिर्फ़ अपने सीमित अहंकार की पुष्टि और तात्कालिक हितों की तुष्टि के लिए ही किया जाता है। इस युक्ति का उपयोग करते समय यह भुला दिया जाता है कि भारत की मौलिक एकता और राष्ट्र के साथ रागात्मक सम्बंध की अनुगूँज ऋग्वेद से आरंभ होकर रामायण, महाभारत, विष्णु पुराण आदि से होते हुए रवि ठाकुर, सुब्रह्मन्य भारती, मैथिलीशरण गुप्त और रामधारी सिंह दिनकर समेत अन्यान्य रचनाकारों तक विस्तृत होता आ रहा है।
यह पृथ्वी नाना धर्म वालों और विविध भाषाओं को बोलने वालों का भरण-पोषण करती है । इसी अर्थ में भूमि माता है । देवता और मनुष्य भिन्न होते हुए भी परस्पर एक दूसरे पर निर्भर माने गए हैं , यहाँ तक कि भक्त जितना भगवान पर निर्भर होता है उतना ही भगवान भी भक्त पर निर्भर होते हैं । यही सोच कर यह आकांक्षा बार-बार की जाती रही कि विविधवर्णी समाज में बुद्धि, हृदय और मन सभी समान हों।
इस प्रसंग में भारत विद्या के प्रख्यात अध्येता आनंद कुमारस्वामी स्मरण आते हैं जिनके शब्दों में भारत की विश्व को सबसे बड़ी देन उसकी भारतीयता है। फिर भारतीयता की व्याख्या करते हुए वे एक सूत्र बताते हैं कि इस देश की प्रतिज्ञा है कि एक तत्व की प्रधानता और उसकी बहुलता वाली अभिव्यक्ति- एकोहं बहुस्याम और उस एक तत्व तक कई मार्गों से पहुंचा जा सकता है - एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति। एकता से विविधता ज़रूर पैदा होती है पर एकता ही मूल में है।
आज पूरे देश की बात विस्मृत सी हो रही है जब कि इसके निर्माण पूरे भारत के लोगों ने एक समग्र सत्ता के बोध के साथ जुड़े थे और देश के स्वतंत्रता-संग्राम में बलिदान किया था। वे हर धर्म और जाति के थे और देश के साथ उनका लगाव उन्हें जोड़ रहा था। उनके सपनों का भारत एक समग्र रचना है। यह इसलिए भी जरूरी है कि हम उनका भरोसा न तोड़ें और उनकी विरासत को साझा करें। एक स्वायत्त राष्ट्र की चेतना वाला एक भारत ही श्रेष्ठ भारत होगा।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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