अधिकारों का संरक्षण जरूरी

देश में इन दिनों राजद्रोह कानून पर चर्चा छिड़ी है। सियासी गलियारे से लेकर सुप्रीमकोर्ट तक में इसकी गूंज सुनाई दे रही है। दरअसल पिछले कुछ वर्षों में जैसे राजनीतिक लक्ष्यों व विरोध के स्वरों को दबाने के लिये ब्रिटिशकालीन राजद्रोह कानून का इस्तेमाल हो रहा था, उसने कानून के दुरुपयोग को लेकर देशव्यापी आक्रोश को जन्म दिया। इस कानून की संवैधानिकता पर सुनवाई कर रही शीर्ष अदालत ने कानून की समीक्षा का आग्रह केंद्र सरकार से किया था। कालांतर केंद्र सरकार इस कानून की समीक्षा के लिये तैयार हुई है। वास्तव में कई सरकारों ने भारत-पाक मैच में नारे लगाने, हनुमान चालीसा पाठ, सोशल मीडिया पर पोस्ट डालने तथा कार्टून बनाने जैसी अभिव्यक्ति पर अंकुश हेतु कानून का बेजा इस्तेमाल किया है। आखिर जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तो स्वतंत्रता सेनानियों को धमकाने के लिये इस्तेमाल होने वाले कानून का अस्तित्व में रहना क्यों जरूरी है। बहरहाल, केंद्र सरकार देशद्रोह कानून की समीक्षा के लिये तो तैयार हुई, लेकिन कहना कठिन है कि यह कब तक होगी। वहीं बुधवार को शीर्ष अदालत ने उम्मीद जगायी कि इस दिशा में कुछ सकारात्मक होगा। कोर्ट ने कहा कि जब तक केंद्र सरकार राजद्रोह कानून की समीक्षा करेगी, तब तक इसके तहत कोई नयी प्राथमिकी दर्ज न हो। वहीं जो मामले इस कानून के तहत चल रहे हैं उनमें भी अब कार्रवाई न हो। साथ ही जो लोग इस कानून के तहत जेल में हैं, वे अपनी जमानत के लिये अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं। राजद्रोह कानून की संवैधानिक मान्यता को चुनौती देने वाली याचिकाओं के क्रम में इस बाबत सुनवाई अब जुलाई के तीसरे सप्ताह में होगी। बहरहाल, केंद्र सरकार ने कानून की समीक्षा का वादा करके अपने पिछले रवैये में बदलाव किया है। इससे पहले शीर्ष अदालत में दिये गये हलफनामे में केंद्र सरकार वर्ष 1962 के बहुचर्चित केदारनाथ बनाम बिहार राज्य मामले में दिये गये फैसले को पर्याप्त बता रही थी, जिसमें इस राजद्रोह कानून के दायरे को कम किया गया था। लेकिन इसके बावजूद पुलिस-प्रशासन के व्यवहार में कोई विशेष बदलाव नजर नहीं आया। दरअसल, इस कानून के बेजा इस्तेमाल को लेकर लोगों का मानना है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत राजनीतिक संवाद में आलोचना होना आम बात है। यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है। हर नागरिक की अभिव्यक्ति व गरिमा की भी रक्षा की जानी चाहिए। ऐसे में औपनिवेशिक शासन में नागरिकों को दंडित करने वाले कानून का आजादी के सात दशक बाद भी अस्तित्व में रहना विडंबना ही है। कहना कठिन है कि केंद्र सरकार इस कानून के कुछ प्रावधानों की समीक्षा करेगी या इसे समाप्त करेगी। बहरहाल, इस कवायद के कुछ सकारात्मक परिणाम जरूर सामने आएंगे। दरअसल, इस कानून में दंड के प्रावधान काफी सख्त हैं। इसके अंतर्गत तीन साल से लेकर आजीवन कारावास का प्रावधान है। जो भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए के तहत मौखिक अभिव्यक्ति, लिखित बयान या दृश्य रूप में सरकार के खिलाफ असंतोष भड़काने, घृणा फैलाने या अवमानना के प्रयास में लागू किया जा सकता है। इसे गैर जमानती अपराध की श्रेणी में रखा गया है। वैसे शीर्ष अदालत ने 1962 के बहुचर्चित केदारनाथ प्रकरण में कहा था कि अव्यवस्था पैदा करने या ऐसे इरादे, कानून-व्यवस्था में व्यवधान व हिंसा को बढ़ावा देने वाले मामले में ही इस कानून का इस्तेमाल हो सकता है। मगर सत्ता मद में चूर सरकारें कानून का जमकर दुरुपयोग करती रही हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2016 से 2019 के बीच इस कानून के तहत दर्ज मामलों में 160 फीसदी की वृद्धि हुई मगर दोष सिद्धि महज तीन फीसदी ही थी। सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब गिरफ्तारियां मामले को गंभीर बताते हुए इतनी बड़ी संख्या में हुई तो सजा इतने कम लोगों को क्यों मिल पाई? जाहिर है मामलों को राजनीतिक दुराग्रह के चलते तूल दिया गया। इस मामले में पुलिस-प्रशासन को संवेदनशील व जवाबदेह बनाने की जरूरत है, जो अक्सर राजनीतिक नेतृत्व के दबाव में कानून का दुरुपयोग करते हैं। 

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