युवाओं में इतनी आक्रामकता क्यों ?

प्रो. नंदलाल मिश्र
आज का युवा इतना आक्रामक क्यों हो गया है, यह प्रश्न विचारणीय है महत्वपूर्ण है गंभीर है और यह सामाजिक चुनौती भी है। जीवन को व्यवस्थित जीने के लिए ऋषियों ने आश्रम व्यवस्था बनाई थी।ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, सन्यास और वानप्रस्थ। इन आश्रमों के माध्यम से हम जीवन के वास्तविक उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास करते थे।वातावरण भी ऐसा होता था कि ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए सिर्फ हमें वही दिखाई पड़ता था जिससे ब्रह्मचर्य में खलल न पड़े। इसके पीछे हमारे संस्कारों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती थी।
संस्कार छूटते चले गए हमारी आश्रम व्यवस्था भी अप्रासंगिक होती चली गयी। तर्क दिया जाने लगा कि हम प्रगति कर रहे हैं। प्रगति और विकास में परंपराएं और संस्कार अपना कोई स्थान नहीं रखते। आगे बढ़ना है तो कुछ पीछे छोड़ना पड़ेगा। इस पर रुक कर हम नहीं सोचते कि पीछे क्या छोड़ना उचित है। बस छूट रहा है तो छूट जाय। हम जीवन के आधारीय मूल्यों को दर किनार करते चले गए। विकास और उत्थान का पैमाना कुछ एक अच्छी नौकरियों में प्राप्त सफलता ने निर्धारित करना शुरू कर दिया। न्याय अन्याय का कोई अर्थ ही अवशेष नही रहा।प्रसिद्ध राष्ट्रकवि रामधारी सिंह की कविता "परशुराम की प्रतीक्षा" यहां बरबस याद हो आती है--




      हे बीर बंधु दायी है कौन विपति का
       हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का
        है गहन प्रश्न कैसे रहस्य समझाएं
       दो चार वधिक हों तो हम नाम गिनाएं।
आज का अभिभावक इतना चाहता है कि उसका बच्चा कक्षा में अच्छे अंक लाये और उसे एक अच्छी नौकरी मिल जाय। अब उससे अधिक सौभाग्यशाली व्यक्ति इस दुनिया में दूसरा नहीं है। जबकि यहीं से उस बच्चे की असल जिंदगी शुरू होती है। अभिभावक यह नहीं समझ पाते कि उन्होंने बच्चे को वो चीजें नही बताई या सिखाई जिसकी असल जिंदगी में उसे जरूरत थी। अच्छे अंक लाना या अच्छी नौकरी पा जाना असल में जीवन की सफलता नहीं है। सफलता उसे मानी जाती है जब नौकरी पाने के बाद वह अपने माँ बाप दादा दादी परिवार और अपने समाज से जुड़ा रहे।
ऐसा हो नही रहा है। बड़ी मेहनत से पाले पोसे गए बच्चों में से कुछ नौकरी पा गए तो कुछ बेरोजगार हो गए। जो नौकरी पा गया वह अपने परिवार के साथ बाहर का रुख कर लिया और जो बेरोजगार हो गया वह बेरोजगारों की फौज में भर्ती हो गया। सुबह खाना खाकर बेरोजगारों के साथ किसी ब्लॉक या तहसील या जिला मुख्यालय में नेतागिरी या दलाली करता नजर आता है। घर के कार्यों को लेकर मां बाप से तू तू मैं मैं होती रहती है। बेचारे बूढ़े मा बाप यह समझ नही पाते कि गलती कहाँ से हो गयी। जिस समय संस्कार और शिक्षा दोनों की जरूरत थी हम उसे अच्छे अंक लाने के लिए प्रेरित करते रहे। अच्छे अंक का संबंध बुद्धि से होता है। यदि छात्र बुद्धिमान है तो वह अच्छा अंक तो ला देगा पर संस्कार के अभाव में उसके अंदर जो विद्रूपता जन्म लेती है वह व्यक्ति को अनेक ऐसे मार्गो पर भटका देती है जो उसे अंतहीन दिशा में खींच ले जाती है।
यहां विषय यह था कि आज का युवा इतना आक्रामक क्यों हो रहा है।इसलिए हो रहा है कि उसे सुख दुख हानि लाभ अच्छे बुरे सत्य असत्य का ज्ञान नहीं कराया जाता। पाठ्यक्रमों से सहिष्णुता के अंश खत्म हो गए। समायोजन की बातें सिखाई नहीं जाती। नीतिगत और अच्छे संस्कार डालने वाली बातें रही नही।अब सिर्फ दो गुने दो चार और ए बी सी डी की बातें ही अधिक सिखाई और बताई जाती हैं।देश के कर्णधार जाति और मजहबी बातें अधिक करने लगे।पड़ोस ईर्ष्या और द्वेष का स्टॉक बन गया। मष्तिष्क ऐसा आकार लेता गया जहां समरसता का नामोनिशान नहीं बचा। पहले लोगो में भुखमरी थी। गरीबी थी। दो वक्त का भोजन मुश्किल से मिल पाता था। लोग भोजन की व्यवस्था में लगे रहते थे जिससे व्यस्तता बनी रहती थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद धीरे धीरे गरीबी के इस ट्रेंड में बदलाव आया।लोग मूल्यों और मर्यादाओं से बाहर निकलकर वैज्ञानिक युग मे प्रवेश कर गए। टेक्नोलॉजी ने इतने पाँव पसार दिए कि न चाहते हुए भी उससे गुजरना पड़ता है। शर्तें इतनी ढ़ीली हो गयी कि आप अपनी मर्जी से अपने जीवन यापन कारास्ता ढूँढ़ सकते हैं। ऐसे में अब वह समस्या बहुत कम लोगों के समक्ष रह गयी कि दो जून का खाना जुटाना पड़े।अब जबकि हमारी रोजमर्रा की आवश्यकताएं मामूली मेहनत से पूरी हो जाती हैं तो हमारी व्यस्तता और मानसिक दबाव कम होते जा रहे हैं।हम बहुत सारी जिम्मेदारियों को आभास ही नही कर पाते।ऐसी स्थिति में हम स्वतंत्र और स्वच्छंद हो जाते हैं। मन में जो आया कर बैठे।हमारा मन उग्र होने लगता है। और तो और यदि भीड़ में हम पहुँच जाते हैं तो वह भी कार्य कर बैठते हैं जो अकेले रहने पर सोच भी नही सकते।लिहाजा हम निर्व्यष्टिकरण का शिकार हो जाते हैं जिसे डि इंडिविजुएसन कहा जाता है।आदमी जो ऐसी स्थिति में गलत कार्य करता है तो सोचता है कि कर लो इसकी जिम्मेदारी मेरे ऊपर थोड़े आनी है।इस भीड़ में कौन जाने किसने किया।इस भावना के हम शिकार हो जाते हैं।
       आप अपने घरों में आसानी से इस स्थिति को देख सकते हैं।लोग बड़ों की बातों की आसानी से अवहेलना कर जाते हैं।जिम्मेदारियों से भागते हैं।बड़ों का अनादर करते हैं और अपने ज्ञान को सर्वोपरि मानते हैं।नतीजा यह हो रहा है कि उनमें उत्तेजयता बढ़ती है और छोटी छोटी बातों को भी बर्दाश्त करने की क्षमता समाप्त हो रही है।परिणाम यह होता है कि आक्रामकता के चलते आत्महत्या, तलाक, मारपीट, बलात्कार, झगड़ा और बंटवारा इत्यादि प्रवृतियों में इजाफा हो रहा है। तनिक सी बात पर मारपीट फसाद की स्थिति निर्मित हो जाती है। कृष्ण बिहारी नूर की एक शायरी यहाँ बहुत सटीक लगती है-
   जिंदगी से बड़ी सजा ही नहीं
    और क्या जुर्म है पता ही नही
     इतने हिस्सो में बंट गया हूँ मैं
    मेरे हिस्से में कुछ बंचा ही नहीं।
आक्रामकता अपनी सीमाएं लांघ रहा है।युवाओं का अपने ऊपर नियंत्रण नही है।अभिभावक परेशान और बेचैन है ।उसे पता नही अपने कर्मो पर पछतावा है भी या नही।अभी वक्त है सम्हलने का वरना विज्ञान और प्रौद्योगिकी की अंधी रेस हमे कहाँ ले जाकर पटकेगी कह नहीं सकते।
- महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय
विश्वविद्यालय, चित्रकूट, सतना (मप्र)

No comments:

Post a Comment

Popular Posts