-श्रीमद्भगवद्गीता का अध्यापन समय की मांग
- प्रो. नंदलाल मिश्र
 श्रीमद्भगवद्गीता के महत्व को स्वीकारते हुए कई राज्यों में इसे पाठ्यक्रम में जोड़ने की बात की जा रही है। कुछ लोग इसे हिंदुत्व और चुनावों से जोड़कर देख रहे हैं तो कुछ लोग इसे नई शिक्षा नीति में जोड़ने की बात कर रहे हैं। गुजरात सरकार ने इसे अपने पाठ्यक्रम में लागू भी कर दिया है तो मध्यप्रदेश सरकार स्नातक द्वितीय वर्ष में रखने की बात कर रही है। वहीँ कर्नाटक सरकार भी अपने यहाँ लागू करने की बात कर रही है। अलग अलग राज्यों में अलग-अलग दृष्टिकोण है। इसका अर्थ यह है कि इसे पाठ्यक्रम में जोड़ने और न जोड़ने की आजादी है। आप चाहें तो लागू करें न चाहे तो बीस तर्क दें।
परंतु प्रश्न यह उठता है कि यदि हम अपनी भारतीय संस्कृति को गहराई से समझते हैं तो ऐसे ग्रंथों को हमें कबका इसे पाठ्यक्रम में जोड़ देना चाहिए था। किस नियति और किस नीति के कारण ऐसा नहीं किया गया यह बहस का विषय है। ऐसे ग्रंथ हमारे लौकिक और पारलौकिक यात्रा को सहज करते हैं। मात्र गीता ही नही अपितु रामायण, पुराण, वेद, अरण्यक ग्रंथ और उपनिषद सभी ग्रंथ हमारे जीवन मार्ग को आसान बनाते हैं। पहले इन सभी ग्रंथों के कुछ अंश को विभिन्न स्तर के पाठ्यक्रमो में जोड़ा भी गया था। पर आज समाज में विचलन बहुत तेज है उस विचलन में अधिक भटकाव हो जाय इससे पहले जरूरी हो गया है कि इन्हें पाठ्यक्रमों में जोड़ा जाय और इसके अधिकांश अंश को पाठ्यक्रमों में रखा जाय।



स्वतंत्रता पश्चात देश की शिक्षा नीति भारतीयों को जीवन मूल्यों से बहुत दूर लेकर चली गयी। परिणाम यह हुआ कि लोग स्वच्छंद होते चले गए और हम स्वार्थ के चंगुल में फंसते चले गए। रामायण काल और महाभारत काल के नायकों का इतिहास हमें आगाह करता रहा है कि जीवन मे किन मूल्यों को अपनाना है। पर हम बिखरते गए और उन्हीं रास्तों पर बढ़ गए जिन कारणों से महाभारत और रावण राज्य आया था।
सनातन धर्म और हमारी जातीय व्यवस्थाएं ऐसे ही नहीं स्थापित हुई थीं बल्कि सदियों के अनुभव और तपस्वियों के त्याग ने समाज की एक व्यवस्था दी थीं। जैसे-जैसे हम अपने संस्कृति और सामाजिक मानदंडों को छोड़ते गए समाज दिशाहीन होता चला गया। परिवार टूटने लगे, समाज टुकड़े टुकड़े में बंट गया। कोई किसी के सुझाव को मानने को तैयार नहीं। बड़े बुजुर्गों का अपमान, नारी अस्मिता पर चोट, भ्रष्टाचार, बेईमानी, अकर्मण्यता अनगिनत समाज विरोधी व्यवहार सामने आते गए।
हमने समाज में ऐसे मानक बनाने शुरू कर दिए कि केवल शक्तिमान ही इस संसार में रह सकता है। क्या जज क्या डॉक्टर क्या इंजीनयर शिक्षक और यहां तक कि जनप्रतिनिधि सभी अपनी ईमानदारी को गिरवी रखकर कार्य करने लगे। गांव का एक छोटा प्रतिनिधि जिसे कहीं प्रधान कहा जाता है कहीं मुखिया कहा जाता है तो कहीं सरपंच कहा जाता है वह अपने चुनाव जीतने के एक वर्ष के अंदर स्कोर्पियो और बोलेरो गाड़ी से चलने लगता है। यह गंदगी समाज में गलत शिक्षा नीति के चलते आयी। हमारा जमीर मर गया, हम नैतिक रूप से पतित हो गए। दो वर्ष की बच्ची से बलात्कार किस समाज की निशानी है।
देर से ही सही। अब स्थितियां संभल रही हैं। समाज और परिवार को जोड़ने वाली शिक्षा की महती आवश्यकता है। महिलाओं बच्चों और बुजुर्गों को सम्मान देने वाली शिक्षा की जरूरत है।
     ग्लोबलाइजेशन के दौर में जहां हमे सभी संस्कृतियों की झांकिया आसानी से देखने और जानने को मिल जाती हैं, हमें वहां सर्वे भवन्तु सुखिनः की संस्कृति को समझने का अवसर मिलना ही चाहिए। यह अवसर मीडिया से नहीं मिलेगा। यह अवसर विदेश गमन से नहीं मिलेगा यह अवसर हमें धन और संपदा से नहीं मिलेगा। यह मिलेगा हमारे पुराणों से यह मिलेगा हमारे वेदों और ऋचाओं से, यह मिलेगा हमारे उपनिषदों से। हमें गीता और रामायण से मिलेगा। इसका ज्ञान हमें कैसे होगा। इस पर हम विस्तार से चर्चा करेंगे। पर नई शिक्षा नीति अपने पाठ्यक्रमो के कितने हिस्सों में इसे समाहित करेगी यह तो नही मालूम पर उसे आजीविका लायक शिक्षा के साथ साथ इसे भी लागू करना होगा। यह मात्र चुनावी स्टंट नही हो सकता।अपितु इसे ठोस आकार देना पड़ेगा। बिना इसकी व्यवस्था किये शिक्षा नीति का अपना कोई महत्व नहीं। नई शिक्षा नीति में लचीलापन, स्थानीय भाषा और कौशलयुक्त शिक्षा पर विशेष बल दिया गया है।
जिस देश मे अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त में राशन बांटने की व्यवस्था सरकार करती हो उस देश में लोगों को कौशलयुक्त शिक्षा देकर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करने की सोच एक स्वागत योग्य कदम है। पर बात यही खतम नहीं होती। मैंने यह देखा है कि इस देश में कान्वेंट स्कूलों की बाढ़ सी आ गयी है। मनमाना शुल्क वसूले जा रहे हैं। रिक्शा चलाने से लेकर मजदूर वर्ग भी इन्हीं कान्वेंट स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं क्योंकि सरकारी स्कूल तो राम भरोसे हैं।
ग्लोबलाइजेशन ने समाज मे एक बहुत बड़ा वर्ग इस तरह का पैदा कर दिया है जो अपने बच्चों को पढ़ने के लिए विदेशों में भेज दे रहे हैं।विदेशों और कान्वेंट से पढ़कर आने वाले बच्चे न नैतिकता को कुछ जानते हैं न ही भारतीय संस्कृति को ठीक से समझ पाते हैं। उनका आचरण यूज़ एंड थ्रो वाला हो गया है। न तो उनका विश्वास धर्म मे है न ही अपने समुदाय में। वे अपने आप को दूसरे लोक का प्राणी मानते हैं। ऐसे में जरूरी हो गया है कि अब एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था दी जाय जो विद्यार्थियों में अपनी संस्कृति और अपने देश के प्रति अनुराग जगाए। जो उनमे नैतिकता का भाव भरे जो उन्हें जीवन के प्रति आशावादी होना सिखाये।
 सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास के लिए भारत रत्न राष्ट्रऋषि नाना जी देशमुख ने उन्नीस सौ इक्यानवे में चित्रकूट में एक ऐसे विश्वविद्यालय की आधारशिला रखी जिसमे सभी छात्रों को दो कार्य अनिवार्यतः करने होते हैं। पहला सभी को मूल्य एवं सामाजिक उत्तरदायित्व आवश्यक रूप से पढ़ने होते हैं तथा सभी छात्रों को ग्रामीण समस्याओं को समझने तथा यथासंभव समाधान तलाशने के लिए सप्ताह में दो दिन गांव में कैम्प करने होते हैं। ऐसी शिक्षा की जरूरत है जो छात्रों में मूल्य संवर्धन के कार्य करे। ऐसी शिक्षा व्यवस्था के लिए हमें गीता रामायण उपनिषद ब्राह्मण ग्रंथ की जरूरत है इसे कक्षा एक से लेकर बारहवीं तक थोड़े थोड़े अंश को लेकर पढ़ाया जाना चाहिए। जिससे उन्हें इन ग्रंथों का सम्पूर्ण ज्ञान हो सके। राजनीति के लिए नहीं अपितु पीढ़ी निर्माण के लिए ऐसी शिक्षा व्यवस्था समय की मांग है।
 - महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय
 चित्रकूट सतना (मप्र)

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