हिजाब विवाद बनाम स्त्री की मर्जी
कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले के बाद मुस्लिम संगठनों ने कर्नाटक बंद किया। मतलब यह कि फिलवक्त अभी यह मामला खत्म नहीं हुआ है।  जहां तक सवाल अदालत के आदेश का है, तो वह सभी के लिए मान्य है। जब तक सर्वोच्च अदालत में यह मामला नहीं जाता और कोई नया फैसला इसमें नहीं आता, तब तक इसी आदेश का पालन सबको करना होगा। अदालत ने कहा है कि इस्लाम धर्म में हिजाब पहनना एक अनिवार्य प्रथा नहीं है। इस तरह इस मसले को धार्मिक लिहाज से व्याख्यायित किया गया है। जबकि इसमें स्त्री की आजादी के सवाल पर भी विचार करना चाहिए था। इस्लाम हो या कोई और धर्म, उसकी मान्यताओं के कारण अगर स्त्रियों की आजादी छीनी जा रही है, तो उस पर विचार होना चाहिए। अलग-अलग धर्मों में कई तरीकों से स्त्रियों पर कुछ नियम थोपे गए हैं, और बिना किसी तर्क के उनका जबरन पालन पितृसत्तात्मक समाज करवाता है। इसमें स्त्रियों से उनकी मर्जी न पूछी जाती है, न मानी जाती है। हिजाब विवाद में भी ऐसा ही था। कुछ लड़कियों को हिजाब पहनना था, लेकिन यूनिफार्म का हवाला देकर उन्हें रोका गया। इसके लिए धार्मिक कट्टरता को भी दोषी ठहराया गया। अब इस पर रोक भी इसलिए लगी है, क्योंकि धर्म की ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है। यानी यहां धार्मिक कट्टरता वाला तर्क खारिज हो गया। मगर स्त्री की मर्जी का सवाल वहीं का वहीं रह गया। अगर धर्म की अनिवार्यता होती, तब शायद उन लड़कियों पर भी हिजाब की पाबंदी होती, जो इसे नहीं पहनना चाहती हैं। और उन लड़कियों का क्या होता, जो भले ही किसी भी धर्म में पैदा हुई हों, लेकिन वे नास्तिक हैं या नास्तिक रहना चाहती हैं। हिजाब के सारे मसले को जिस तरह सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई है, वह भी समाज में सक्रिय विभाजनकारी ताकतों का एक और प्रयोग लगता है। अदालत के फैसले के बाद बच्चों के भविष्य और पढ़ाई की बात की गई है, लेकिन यह समाज के लिए सोचने का विषय है कि क्या इससे पहले हिंदुस्तान के स्कूल-कालेजों में पढ़ाई नहीं होती थी, क्या पहले उच्च शिक्षा, शोध और अनुसंधान, साहित्य, कला, विज्ञान, खेल के क्षेत्र में ऐसे काम नहीं हुए, जिनसे देश का भविष्य बेहतर गढ़ने में मदद मिली। पिछले 70 सालों में देश ने हर क्षेत्र में प्रगति की, कई मामलों में देश अपने पैरों पर खड़ा हुआ। लेकिन स्कूल-कॉलेजों में अब जो माहौल बनता जा रहा है, उसके बाद आने वाले 70 सालों में हम देश की कैसी तस्वीर बनते देख रहे हैं, इस पर भी विचार करना चाहिए। अदालत ने हिजाब पहनने को अपना संवैधानिक अधिकार बताने वाली छात्राओं की याचिका को खारिज कर दिया है, साथ ही कहा है कि इस्लाम धर्म में हिजाब पहनना एक अनिवार्य प्रथा नहीं है। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि शिक्षण संस्थानों में यूनिफ़ॉर्म की व्यवस्था क़ानूनी तौर पर जायज़ है और इससे संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार या निजता की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन नहीं होता है। गौरतलब है कि साल 2022 की शुरुआत ही कर्नाटक में हिजाब विवाद से शुरु हुई। 1 जनवरी को उडुपी के राजकीय पीयू कॉलेज में 6 छात्राओं ने दावा किया था कि उन्हें हिजाब पहनकर क्लास में आने की अनुमति नहीं है। इसके बाद यह मामला राज्य भर में विवाद का कारण बन गया। कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले के बाद अब याचिकाकर्ता सर्वोच्च अदालत जाने के रास्ते टटोल रहे हैं। जबकि कर्नाटक हाईकोर्ट के इस फैसले का स्वागत करते हुए केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी ने कहा, विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई होती है। इसलिए ये सब छोड़कर उन्हें पढ़ना चाहिए और एकजुट रहना चाहिए। वहीं कर्नाटक के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने कहा है कि ये हमारे बच्चों के भविष्य और शिक्षा का सवाल है। कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए ज़रूरी प्रबंध किए गए हैं। इन नेताओं की सोच से सहमत हुआ जा सकता है कि विद्यार्थियों को केवल पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए और ये हमारे भविष्य का सवाल है। 

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