सत्संग शब्द की व्युत्पत्ति सत जोड़ संग से हुई है। यहां सत का अर्थ है ईश्वर या ब्रह्म तत्त्व अर्थात जो शाश्वत है, जो सनातन है, नित्य है, जो कभी नहीं बदलता उसे सत कहते है और संग का अर्थ है संगत। अर्थात् ईश्वर या ब्रह्मतत्त्व की अनुभूति हेतु अध्यात्म की दृष्टि से पोषक वातावरण। कीर्तन या प्रवचन के लिए जाना मंदिर जाना, तीर्थक्षेत्र जाना, संत लिखित आध्यात्मिक ग्रंथोंका वाचन करना, अन्य साधकों का सानिध्य, संत या गुरुके दर्शन हेतु जाना इत्यादि से क्रमशः अधिकाधिक उच्च स्तर का सत्संग प्राप्त होता है।
सत्संग दो प्रकारका होता है एक होता है बाह्य सत्संग और दूसरा होता है आंतरिक सत्संग। जब हमारा योग या जुड़ाव ईश्वर के साथ अखंड हो जाता है और उसका क्रम कभी भी नहीं टूटता है उसे खरे अर्थमें सत्संग कहते हैं और इस प्रकारके सत्संग को आंतरिक सत्संग कहते हैं। इस प्रकार के सत्संग में संत या उच्च कोटि के उन्नत रहते हैं। वे सदा ईश्वरके संग जुड़े रहते हैं वे चाहे पूजा घरमें हो, मछली बाज़ारमें हो, श्मशान भूमि में हो या ऐश्वर्य से युक्त एक महल में, उनका ईश्वर का साथ अखंड बना रहता है। बाह्य वातावरण उनके ईश्वर के साथ की अंतरंगता एवं अखंडता को प्रभावित नहीं करता।
साधारण मनुष्य के लिए या साधना आरम्भ करने वाले साधक के लिए यह संभव नहीं होता तो वह क्या करे? जब तक हमें आतंरिक सत्संग की अखंड अनुभूति नहीं होती तब तक हमें बाह्य सत्संग का सहारा अवश्य ही लेना चाहिए। बाह्य सत्संग के बहुत प्रकार हैं। सर्वप्रथम हम सर्वश्रेष्ठ बाह्य सत्संग क्या है यह जान लेते हैं। सर्वश्रेष्ठ बाह्य सत्संग है संतों का संग । संत कौन होते हैं ? ईश्वर के सर्वज्ञानी, सर्वव्यापी एवं सर्वशक्तिमान तत्त्व का प्रकट स्वरुप अर्थात् संत। अतः संत सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान होते हैं। जिन्होंने प्रचंड साधना कर ईश्वर से एकरूपता साध्य कर ली है उन्हें संत कहते हैं।

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