...तो अब डाकिया डाक नहीं लाएगा

शिवचरण चौहान
मैं एक डाकिया हूं। डाकिया, वही पोस्टमैन, चिट्ठीरसा, हरकारा। और भी कई नाम से आप बुलाते थे जिसे। आपकी डाक, आपकी  चिट्टियां रोज रोज आपके हाथों तक, घर तक पहुंचाने वाला। जिस की प्रतीक्षा आपको रोज रहती थी। अगर किसी दिन मैं आपके घर तक ना आ पाता तो आप मेरा पता करते करते  डाक घर तक आ जाते थे या मेरे घर तक आते थे कि कहीं मैं बीमार तो नहीं पड़ गया हूं मेरी खोज खबर रखते थे।




अब आप मुझे भूल गए हैं। जब से इंटरनेट आया, गूगल बाबा ने घर घर पैठ बनाई। ई-मेल आया है। व्हाट्सएप इंस्टाग्राम और आज के अनेक आधुनिक संचार के साधन आ गए अब मेरी उपयोगिता क्या रही ? यह जानकर आपने मुझे भुला दिया है । मैं इतिहास बनता जा रहा हूं। ऐसा इतिहास जो शायद  कोई याद न रखे !
इंडिया पोस्ट इसका पुराना नाम डाक विभाग है डूबता जा रहा है 15000 करोड से अधिक घाटे में है। सातवें वेतन आयोग ने यह घाटा और बढ़ा दिया है और अब आपका डाक विभाग डूबने की कगार पर है। एक समय था जब डाकघर/ पोस्ट ऑफिस दुनिया भर में सबसे बड़ा संस्थान, विभाग था ।  छोटे बड़े सभी लोगों के बहुत करीब। पोस्टकार्ड लिफाफा, अंतर्देशीय पत्र, पैकेट, पार्सल का सभी इंतजार करते थे। राखी पर मेरा बहुत बेसब्री से इंतजार होता था। हमारी पहुंच दुनिया के कोने कोने तक थी। भारत के गांव - गांव तक थी।
 पहली बार भारतीय डाकघर को राष्ट्रीय महत्व के एक अलग संगठन के रूप में स्वीकार किया गया और उसे एक अक्तूबर 1854 को एक डाकघर महानिदेशक के सीधे नियंत्रण में सौंप दिया गया। इस तरह डाक विभाग पहली अक्टूबर  2004 में अपने 150 वर्ष पूरे कर चुका है। 2029 में 175 वर्ष हो जाएंगे। पर तब तक शायद मैं नहीं रहूंगा! डाक विभाग नहीं रहेगा!भारतीय डाक व्यवस्था कई व्यवस्थाओं को जोड़कर बनाई गई थी। 650 से ज्यादा रजवाड़ों की डाक प्रणालियों, जिला डाक प्रणाली और जमींदारी डाक व्यवस्था में शामिल किया गया था। इन टुकड़ों को इतनी खूबसूरती से जोड़ा गया था कि ऐसा प्रतीत होता था कि यह एक संपूर्ण अखंडित संचार संगठन है।
1766 में लार्ड क्लाइव ने  गुलाम भारत  में पहली डाक व्यवस्था स्थापित की थी। इसके बाद 1774 में वारेन हेस्टिंग्ज ने इस व्यवस्था को और मजबूत किया। उन्होंने एक महा डाकपाल के अधीन कलकत्ता प्रधान डाकघर स्थापित किया। मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी में क्रमशः 1786 और 1793 में डाक व्यवस्था शुरू की गई। 1837 में डाक अधिनियम लागू किया गया ताकि तीनों प्रेसीडेन्सी में सभी डाक संगठनों को आपस में मिलाकर देशस्तर पर एक अखिल भारतीय डाक सेवा बनाई जा सके।
1854 में डाक और तार दोनों ही विभाग अस्तित्व में आए। शुरू से ही दोनों विभाग जन कल्याण को ध्यान में रखकर चलाए गए थे।  लाभ कमाना उद्देश्य नहीं था। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सरकार ने फैसला किया कि विभाग को खर्चे निकाल लेने चाहिए। उतना ही काफी होगा।
1908 में भारत के 652 देशी राज्यों में से 635 राज्यों ने भारतीय डाक घर में शामिल होना स्वीकार किया। केवल 15 राज्य बाहर रहे, जिनमें हैदराबाद, ग्वालियर, जयपुर और ट्रावनकोर प्रमुख हैं। 1925 में डाक और तार विभाग का बडे पैमाने पर पुनर्गठन किया गया।
 विभाग की वित्तीय स्थिति का जायजा लेने के लिए उसके खातों को दोबारा व्यवस्थित किया गया। उद्देश्य यह पता लगाना था कि विभाग करदाताओं पर कितना बोझ डाल रहा है या सरकार का राजस्व कितना बढ़ रहा है और इस दिशा में विभाग की चारों शाखाएं यानी डाक, तार, टेलिफोन और बेतार कितनी भूमिका निभा रहे हैं। विस्तृत गतिविधियां भारतीय डाक सेवा का क्षेत्र चिट्ठिया बांटने और  संचार का कारगर साधन बने रहने तक ही सीमित नहीं है।
आपको सुनकर हैरानी हो सकती है कि शुरूआती दिनों में डाकघर विभाग, डाक बंगलों और सरायों का रखरखाव भी करता था। 1830 से लगभग तीस सालों से भी ज्यादा यह विभाग यात्रियों के लिए सड़क यात्रा को भी सुविधाजनक बनाते थे। कोई भी यात्री एक निश्चित राशि के अग्रिम पर पालकी, नाव, घोड़े, घोडागाड़ी और डाक ले जाने वाली गाड़ी में अपनी जगह आरक्षित करवा सकता था। वह रास्ते में पड़ने वाली डाक चौकियों में आराम भी कर सकता था। यही डाक चौकियां बाद में डाक बंगला कहलाईं।
1857 के बाद विभाग ने आगजनी और लूटमार का दौर देखा। एक उप डाकपाल और एक ओवरसियर की हत्या कर दी गई, एक रनर को घायल कर दिया गया और बिहार, उत्तर प्रदेश पश्चिमी सीमांत राज्यों और अवध में सभी संचार लाइनों को तोड फोड़ डाला गया। हिंसा खत्म हो जाने के बाद भी साल भर तक कई डाकघरों को दोबारा नहीं खोला जा सका।
लगभग पांच माह तक चलने वाली 1920 की डाक हड़तालों ने देश की सेवा को पूरी तरह ठप्प कर दिया था। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कई डाकघरों और लैटर बक्सों को जला दिया गया था, और डाक का आना-जाना बड़ी मुश्किल से हो पाता था।
यह डाकिए द्वारा चिट्ठी बांटने से स्पीड पोस्ट और स्पीड पोस्ट से ई-पोस्ट के युग में पहुंच गया है। पोस्ट कार्ड 1879 में चलाया गया जबकि वैल्यू पेएबल पार्सल (वीवीपी), पार्सल और बीमा पार्सल 1977 में शुरू किए गए। भारतीय पोस्टल आर्डर 1930 में शुरू हुआ।
डाकिया हरेक पारंपरिक समुदाय के लोक साहित्य में डाकिये का स्थान काफी ऊंचा है। भारत में प्राय सभी क्षेत्रीय भाषाओं में डाकिए की कहानियां और कविताएं मिल जाएंगी। पुराने जमाने में हरेक डाकिए को ढोल बजाने वाला मिलता था जो जंगली रास्तों से गुजरते समय डाकिए की सहायता करता था। रात घिरने के बाद खतरनाक रास्तों से गुजरते समय डाकिए के साथ दो मशालची और तीरंदाज भी चलते थे। ऐसे कई किस्से मिलते हैं जिनमें डाकिए को शेर उठा ले गया या वह उफनती नदी में डूब गया या उसे जहरीले सांप ने काट लिया या वह चट्टान फिसलने या मिट्टी गिरने से दब गया या चोरों  ने उसकी हत्या कर दी।
डाक वितरण में पैदल से घोडागाडी द्वारा फिर रेल मार्ग से, वाहनों से लेकर हवाई जहाज तक विकास हुआ है, किंतु 2021 आते-आते डाक विभाग की हालत बहुत खस्ता हो गई सरकार ने इसे इंडिया पोस्ट बनाया इंडिया पोस्ट पेमेंट बैंक बनाया पर डाकघर की हालत नहीं सुधर सकी।
सन 2014 से डाक विभाग में कोई भर्ती नहीं हुई भयंकर भ्रष्टाचार के चलते सबसे ज्यादा नुकसान आपके डाकिया को हुआ। सच कहूं तो सरकार इंडिया पोस्ट को बेचना चाहती है किंतु कोई खरीदार ही नहीं मिलता। कांच इंडिया पोस्ट भारतीय दक विभाग 15000 करोड़ से अधिक घाटे में है। क्या भारत का पहला ऐसा विभाग है जो सबसे अधिक घाटे में चल रहा है। इसके बाद भारत संचार निगम यानी बीएसएनल है और तीसरे नंबर पर सबसे ज्यादा घाटे में एयर इंडिया है। एयर इंडिया को तो खरीदार मिल गया है किंतु इंडिया पोस्ट को कोई खरीदने को कोई भी नहीं तैयार है।
इसलिए मैं कह रहा हूं कि अब डूबते हुए इस विभाग को वरना बहुत मुश्किल है और अब आपका ऐड किया हो सकता है कुछ दिनों बाद आपको कहीं ना दिखाई दे।
सादर
आपका सेवक
डाकिया

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