- प्रमोद भार्गव
केंद्र सरकार ने किसानों के हित में कुछ अनाज पर एक बार फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ा दिया है। सबसे ज्यादा 400 रुपये प्रति क्विंटल मसूर और सरसों पर बढ़ाई गई है। गेहूं पर 40, सूरजमुखी पर 114 और चने पर 130 रुपये बढ़ाई गई है। हालांकि हरियाणा और पंजाब के किसानों को ये बढ़ी दरें रास नहीं आ रही हैं। लिहाजा इन दोनों राज्यों में आंदोलन और तेज होता जा रहा है। हालांकि नरेन्द्र मोदी सरकार ने अन्य राज्यों में एमएसपी के औजार से आंदोलन के विस्तार पर अंकुश जरूर लगा दिया है।



पिछले डेढ साल से चल रहे कोरोना संकट ने तय कर दिया है कि आर्थिक उदारीकरण अर्थात पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की पोल खुल गई है। देश आर्थिक एवं भोजन के संकट से मुक्त है तो उसमें केवल खेती-किसानी का सबसे बड़ा योगदान है। भारत सरकार ने इस स्थिति को समझ लिया है कि बड़े उद्योगों से जुड़े व्यवसाय और व्यापार जबरदस्त मंदी के दौर से गुजर रहे हैं। वहीं किसानों ने 2019-20 में रिकॉर्ड 29.19 करोड़ टन अनाज पैदा करके देश की ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्था को तो तरल बनाए रखा है, साथ ही पूरी आबादी का पेट भरने का इंतजाम भी किया है। 2019-2020 में अनाज का उत्पादन आबादी की जरूरत से सात करोड़ टन ज्यादा हुआ था। 2020-2021 में भी 350 मिलियन टन आनाज पैदा करके किसानों ने देश की अर्थव्यवस्था में ठोस योगदान दिया है।
भारतीय अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में अमर्त्य सेन और अभिजीत बनर्जी सहित थॉमस पिकेटी दावा करते रहे हैं कि कोरोना से ठप हुए ग्रामीण भारत पर जबरदस्त अर्थ-संकट गहराएगा। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2017-18 के निष्कर्ष ने भी कहा था कि 2012 से 2018 के बीच एक ग्रामीण का खर्च 1430 रुपये से घटकर 1304 रुपये हो गया है। जबकि इसी समय में एक शहरी का खर्च 2630 रुपये से बढ़कर 3155 रुपये हुआ है।
अर्थशास्त्र के सामान्य सिद्धांत में यही परिभाषित है कि किसी भी प्राकृतिक आपदा में गरीब आदमी को ही सबसे ज्यादा संकट झेलना होता है। बीते दो कोरोना कालों में खेती-किसानी से जुड़ी उपलब्धियों का मूल्यांकन करें तो पता चलता है कि देश को कोरोना संकट से केवल किसान और पशु-पालकों ने ही उबारे रखने का काम किया है। फसल, दूध और मछली पालकों का ही करिश्मा है कि पूरे देश में कहीं भी खाद्यान्न संकट पैदा नहीं हुआ। यही नहीं, जो प्रवासी मजदूर ग्रामों की ओर लौटे, उनके लिए मुफ्त भोजन की व्यवस्था का काम भी गांव-गांव किसान एवं ग्रामीणों ने ही किया। वे ऐसा इसलिए कर पाए, क्योंकि उनके घरों में अन्न के भंडार भरपूर थे।
अन्नदाता की आमदनी सुरक्षित करने की जरूरत है। क्योंकि समय पर किसान द्वारा उपजाई फसलों का उचित मूल्य नहीं मिल पाने के कारण अन्नदाता के सामने कई तरह के संकट मुंह बाए खड़े हो जाते हैं। ऐसे में वह न तो बैंकों से लिया कर्ज समय पर चुका पाते हैं और न ही अगली फसल के लिए वाजिब तैयारी कर पाते हैं। बच्चों की पढ़ाई और शादी भी प्रभावित होती हैं। यदि अन्नदाता के परिवार में कोई सदस्य गंभीर बीमारी से पीड़ित है तो उसका इलाज कराना भी मुश्किल होता है। इन वजहों से उबर नहीं पाने के कारण किसान आत्मघाती कदम उठाने तक को मजबूर हो जाते हैं। इसलिए खेती-किसानी से जुड़े लोगों की गांव में रहते हुए ही आजीविका कैसे चले, इसके पुख्ता इंतजाम करने की जरूरत है।
केंद्र सरकार फिलहाल एमएसपी तय करने के तरीके में 'ए-2' फॉमूर्ला अपनाती है। यानी फसल उपजाने की लागत में केवल बीज, खाद, सिंचाई और परिवार के श्रम का मूल्य जोड़ा जाता है। इसके अनुसार जो लागत बैठती है, उसमें 50 फीसदी धनराशि जोड़कर समर्थन मूल्य तय कर दिया जाता है। जबकि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश है कि इस उत्पादन लागत में कृषि भूमि का किराया भी जोड़ा जाए। इसके बाद सरकार द्वारा दी जाने वाली 50 प्रतिशत धनराशि जोड़कर समर्थन मूल्य सुनिश्चित किया जाना चाहिए। फसल का अंतरराष्ट्रीय भाव तय करने का मानक भी यही है। यदि भविष्य में ये मानक तय कर दिए जाते हैं तो किसान की खुशहाली बढ़ने का रास्ता खुल जाएगा। यह उपाय कृषि कानून विरोधी आन्दोलनों को समाप्त करने की दिशा में भी एक सार्थक पहल हो सकती है।
(लेखक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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