- सत्येंद्र प्रकाश तिवारी
ज्ञानपुर, भदोही।

काँगड़ा कलाकृतियाँ, जिन्हें पहाड़ी चित्रकला के नाम से भी जाना जाता है, हिमाचल प्रदेश की काँगड़ा घाटी में बसे कलाकार परिवारों द्वारा बनाए गए लघुचित्र हैं। लोक कला के रूप में विकसित होने के बावजूद काँगड़ा शैली के चित्रों में कला के विकास और बारीकियों का सुन्दर चित्रण मिलता है। गुलेकर्ण इन कलाकृतियों का जन्मस्थल माना जाता है। यही से छंब, मंदी, कुलू और बिलासपुर शैलियों का विकास हुआ।



काँगड़ा शैली का विकास 1775 से 1823 के मध्य राजा संसारचंद के राज्य में हुआ। छंब शैली राजा राजसिंह के दरबार में 1765 से 1794 के बीच विकसित हुयी। ये दोनों ही राज्य समकालीन थे। मंदी नाम से विकसित लघुचित्रों की एक शैली 1595 में मंदी के राजा केशव सेन के समय में विकसित हुयी और राज समरसेन के समय में चरमोत्कर्ष पर पहुँची। मंदी शैली को बसोहली और कुलू शैली को काँगड़ा शैली से जोड़ा जाता है।
इन सबके अतिरिक्त हिमांचल प्रदेश में एक और शैली का भी विकास हुआ है जिसे गुंपा कहते हैं। इनका मूल स्रोत बौद्ध साहित्य है और प्राचीन काल में इनका प्रचलन बौद्ध मठों तक ही सीमित था लेकिन धीरे धीरे छंब और काँगड़ा शैली की प्रभाव गुंपा शैली पर भी आया।
बियास नदी के किनारे काँगड़ा, सुजनपुर और आलमपुर नामक स्थानों पर बसे हुए चित्रकारों ने अनेक वर्षो तक इस शैली पर काम करते हुए इसे विकसित किया। चित्रों की इस शैली के विषय भगवतपुराण, गीत गोविंद, रासलीला, रामलीला, शिव लीला, दुर्गा शक्ति लीला, बिहारी सतसईं, रसिक प्रिया, कवि प्रिया, नल दमयंती प्रणय, राग माला, बारह मासा, राजा, राजदरबार और राजपरिवार के दृश्य हैं। लगभग पत्येक दृष्य की पृष्ठभूमि में प्राकृतिक दृश्यों का चित्रण अत्यंत सुंदरता के साथ किया गया है।
ये सभी चित्र बही खातों के लिये बनाए गए विशेष प्रकार के हस्त निर्मित कागज़ों पर, जिन्हें सियालकोट कागज़ भी कहा जाता है, तैयार किये गये हैं। कागज़ को पहले एक सफेद द्रव्य से लेप दिया जाता है और बाद में शंख से घिस कर चिकना किया जाता है। इससे कागज़ मज़बूद और आकर्षक बन जाता है। रंगों को फूलों, पत्तियों, जड़ों, मिट्टी के विभिन्न रंगों, जड़ी बूटियों और बीजों से निकाल कर बनाया जाता है। इन्हें मिट्टी के प्यालों या बड़ी सीपों में रखा जाता है।

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