विदेश-भ्रमण के दौरान स्वामी विवेकानंद ने अपने व्यक्तित्व से लोगों को मंत्रमुग्ध कर लिया था। वहां के लोगों में यह विचार आया कि जिस गुरु का शिष्य इतना महान है, वह गुरु कितना महान होगा? इस आशय से कुछ विदेशी स्वामी जी के गुरु रामकृष्ण परमहंस के दर्शन के लिए भारत आये। लेकिन यहां आकर रामकृष्ण जी से मिलकर वे निराश से हुए, क्योंकि स्वामीजी के गुरु देखने में साधारण व्यक्ति से दिखते थे। उन आने वालों में से किसी एक ने रामकृष्ण जी को एक बहुमूल्य कम्बल भेंट किया। वे इस कम्बल को कभी बिछाते तो कभी तकिया बनाकर सिरहाने रख लेते तो कभी ओढ़ लेते। आगन्तुक बड़े विस्मय से यह सब देख रहे थे। कुछ देर पश्चात परमहंस जी ने यह बेशकीमती कम्बल पास में जल रही अग्नि में फेंक दिया।
इस पर कम्बल भेंटकर्ता ने उनसे कहा कि यह आपने क्या किया? इस पर रामकृष्ण जी ने कहा कि आप लोग व्यर्थ का चिंतन कर रहे थे और अगर मैं ऐसा न करता तो आप यही चिंतन करते रहते। विदेशी आगन्तुक इससे बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने स्वामी जी से कहा कि वास्तव में आपके गुरु महान है।

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