अभी भी शाश्वत है भारतीय संस्कृति का नवसंवत्सर
By News Prahari - Jan 15, 2021
राजीव पंत
हमारे यहां काल के विभाजन के लिए समय-समय पर अनेक संवत्सर प्रचलन में रहे हैं, जो सृष्टि के निर्माण कार्य से प्रारंभ होकर आज तक गतिशील हैं। जहां सतयुग, त्रेता और द्वापर युग के संवत्सर के नाम ऋषि, मुनि, महापुरुषों के नामपर रखे गये थे। हमारे देश में मैकाले की शिक्षा पद्धति से उपजे इतिहासकारों ने भारत के इन महापुरुषों के नामों को काल्पनिक मात्र बताया। इसका कारण था भारतीय संस्कृति और वैज्ञानिकता जो मजबूत सिद्धांतों और गणनाओं पर आधारित था, उनको रौंदना या समाप्त करना। उस मैकाले का मानना था कि भारतीयों को गुलाम करने के लिए उनकी संस्कृति और गौरवशाली इतिहास को समाप्त करना जरूरी है। हमारे भारतीय संवत की उत्पत्ति यूं कहें कि परमात्मा ने सृष्टि काल से ही कर दी थी। आज की गणना करें तो सृष्टि के एक अरब 96 करोड़ आठ लाख 53 हजार 120 वर्ष पूरे हो गये हैं। यह कोई कपोल-काल्पनिक नहीं वरन् पूर्णत: गणित पर आधारित व प्रमाणिक है। पृथ्वी अपना एक चक्र 24 घंटे में पूरा करती है। 24 घंटों का एक दिन-रात होता है। 30 दिन का एक मास और 12 मास का एक वर्ष होता है। चार लाख 32 हजार वर्ष का एक कलयुग होता है। इतने ही वर्षों को जोड़ देने पर द्वापर युग (864000 वर्ष) फिर त्रेता युग (1296000 वर्ष) और पुन: 432000 वर्ष इसपर जोड़ देने पर सतयुग (1728000 वर्ष) का होता है। इन चोरों युगों को एक चतुर्युग कहा गया है, इन सबका योग 4320000 वर्ष अर्थात एक चतुर्युगी के 43 लाख 20 हजार वर्ष होते हैं। ऐसे 71 चतुर्युग का एक मनवंतर होता है। अभी छह मनवंतर बीत चुके हैं और सातवां मनवंतर चल रहा है। उसकी भी 27 चतुर्युगी बीत चुकी है। हमारे भारतीय ऋषि, मुनि, पंडित आज तक पूरी सृष्टि की गणना किसी भी शुभ कार्य के आरंभ करने पर करते हैं, जिसको संकल्प पाठ कहते हैं। आज इसी कारण एक-एक दिन की गणना को जोड़कर हमारी संस्कृति शाश्वत है।
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