दिग्भ्रमित लोग

 इलमा  अज़ीम 
देश तो आगे बढ़ रहा है, किन्तु देश का नागरिक जन बल राजनीतिक खेमेबंदियों द्वारा पैदा किए गए कुहासे की चपेट में आकर दिग्भ्रमित होता जा रहा है। यह स्थिति अंदर से देश को कमजोर करने वाली है, इसलिए तुरंत ध्यान दिए जाने की अपेक्षा करती है। सोशल मीडिया के जमाने में यह और भी ज्यादा खतरनाक हो गया है जहां जितना मर्जी झूठ परोसा जा सकता है और आम नागरिक उसे सच भी मान लेता है।
 उदाहरण के लिए सोशल मीडिया पर आए दिन जवाहरलाल नेहरु को मुसलमान साबित करने की झूठी मुहिम चलाई जा रही है और एक बड़ा वर्ग इस बात को सच समझ कर आपके साथ बहस करने पर उतारू हो जाएगा। मुंह से कोई बात निकालो तो आपको लिबरल गैंग का सदस्य या अंधभक्त घोषित कर दिया जाएगा, यानी अधिकांश लोग किसी एक पक्ष के गुलाम हो चुके हैं जिससे निष्पक्षता से किसी मुद्दे के दोनों पक्षों की सच्चाई जान कर निर्णय करने की संभावना लगभग समाप्त होती जा रही है।
 हिंदू-मुसलमान हर बात में किया जाने लगा है। जब सबको पता है कि हमें इकठ्ठे ही हमेशा रहना है, तो आपसी मेलजोल और एक-दूसरे का हित ध्यान में रखना ही होगा। दोनों ओर कुछ कट्टरपंथी सोच के लोग समाज में होते हैं, उनको चेहरा बनाने के काम में मीडिया ने भी गलत भूमिका निभाई है। इससे आम आदमी के स्तर पर फूट का संदेश पहुंच रहा है। इसका लंबे समय में कितना हानिकारक प्रभाव समाज के आंतरिक ताने बाने पर पड़ेगा इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है।


 सरेआम धार्मिक सम्मेलनों तक में हिंदुओं को संगठित होकर मुसलमान विरोध के लिए उकसाया जाता है और दूसरी ओर 15 मिनट पुलिस को बैरकों में भेजने की धमकियां होती हैं। हिंदू बहुसंख्यक होने के कारण उनकी जिम्मेदारी भी बड़ी होती है। वहां से पहल तो संबंध सुधार की हो सकती है। करोड़ों लोग एक-दूसरे को शक की निगाह से देखेंगे तो यह सुखी समृद्ध राष्ट्र के निर्माण के लिए सही स्थिति नहीं है। दोनों ओर कानून को अपने हाथ में लेने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। इनके बीच दो मुद्दे फूट डालने के लिए मुख्य हैं- एक धर्मांतरण और दूसरा गो-हत्या। इनको कानून सम्मत तरीके से ही हल किया जा सकता है।

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