फादर्स डे: एक पिता के नजरिए से

जरूरत है पिता को समय और सम्मान देने की 

सपना सी.पी. साहू 'स्वप्निल'

हमारे यहां मां के मातृत्व और उसके त्याग की बात हमेंशा की जाती है परन्तु पिता के पितृत्व की बात कम ही होती है। मां जन्म देती है, चलना सिखाती है पर एक पिता अपने बच्चे की भौतिक जरूरतें पूरी कर बढ़ना सिखाते है। भारतीय समाज में पिता अपने बच्चों के भरण पोषण की जिम्मेदारी, उनके पैदा होने के साथ, उनके आत्मनिर्भर बनने तक उठाते है। 

संक्षेप में, पिता बच्चों को देते जाने का नाम है। उनके किए उपकारों को भारतीय संस्कृति में पितृ ऋण कहते है और उस ऋण को यूं तो हर दिन उतारते रहना चाहिए पर पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव से, अब भारतीयों ने भी फादर्स डे को आत्मसात कर लिया है, यह वह दिवस है, जब बच्चे अपने पिता के प्रेम, त्याग, अनुशासन और समर्पण  को याद करते हैं। 

लेकिन क्या, कभी संतति सोचती है कि उनके पिता अपने बच्चों के कार्यकलापों से संतुष्ट भी है कि नहीं? पिता के मन के भाव क्या है? विशेषतः आज के बदलते दौर में जहां सामाजिक और नैतिक मूल्य ह्वास हो रहे है। यह प्रश्न बहुत भावनात्मक है और यर्थाथ में उठना स्वाभाविक भी है क्योंकि, पिता गण तो जिम्मेदारी निभा ही रहे है पर बच्चे उच्च शिक्षित होकर, कई व्यक्तिगत कारणों से उतना नहीं लौटा पा रहे हैं।  

किसी भी पिता का जीवन अपने बाल-बच्चों के लिए एक अंतहीन यात्रा है। वह अपनी संतति के लिए कई सुखद स्वप्न देखते है, उनको पूरा करने के लिए जी तोड़ मेहनत भी करते है, वे चाहते है कि बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो, उनके बच्चे, उनसे भी बड़ा ओहदा पाए और ऐसी सोच दुनिया में मात्र पिता की ही होती है। परन्तु, आज अति आधुनिकता के कारण पालक अपनी संतति से वही लाड़ दुलार नहीं पा रहे है, इसके हम कई उदाहरण देखते है, समाचारों में पढ़ते भी है। मुझे तो तब बेहद ठेस लगती है जब आराम करने की उम्र में किसी के भी वृद्ध पिता को कामकाज करते देखती हूं, विदेशों में बैठे बच्चों के पालकों को वृद्धाश्रम में देखती हूं और दूर बैठे बच्चों को ऑनलाइन अंतिम संस्कार में शामिल होते देखती हूं। बच्चों को संपत्ति के लिए लड़ते देखती हूं तो भी मन में एक टीस उठती है। 

आज के समय में रिश्तों की गरिमा, अपनत्व कम हो रहा है, और स्वार्थसिद्धि बढ़ रही है। कई सर्वे बताते है कि वृद्धावस्था में कई पिता महसूस करते हैं कि उनके बच्चे उनके लिए समय नहीं निकालते, जो शिक्षाएं, जो जीवन मूल्य सिखाए है उनका पालन भी नहीं करते। बच्चे वह सम्मान नहीं देते जिसके वे हकदार है। तभी तो वृद्धाश्रमों में प्रतिदिन बुजुर्गों की संख्या बढ़ रही है, जो यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि कुछ बच्चे पितृ ऋण को नहीं चुका पा रहे, यह स्थिति बहुत निराशाजनक है।

हालांकि, यह भी सत्य है सब बच्चे एक जैसे नहीं होते। कई संतानें आज भी अच्छी हैं। उन्हें अपने माता-पिता की इच्छाओं का सम्मान करना आता हैं। पर दूसरी ओर यह भी देखने में आता है कि सम्माननीय पिता वही है जो सक्षम, सौम्य व्यावहारिक, स्वस्थ व संपत्तिवान है। लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए पिता, पिता होते है और बच्चों को कभी नहीं भूलना चाहिए कि वे उनके जन्मदाता है, पालक है और जो भी मंजिल पाई है वह पिता नामक सीढ़ी से चढ़कर ही मिली है।  

किसी भी पिता को तब ही गर्व की अनुभूति होती है, जब उसकी संतति केवल आजीविका में ही नहीं बल्कि अच्छे आचरण में भी सफल हो। उनके बच्चे मानवता, नैतिकता की राह पर चलते हुए उनकी वृद्धावस्था में देखभाल करें। माना आज प्रतिस्पर्धी युग में, वे स्वयं के जीवन में व्यस्त हैं पर बच्चे अपने माता-पिता के लिए थोड़ा समय जरूर निकाले। पिता जो जीवनभर कमाकर अपने बच्चों की इच्छाएं पूरी करते है, अक्सर बुढ़ापे में बच्चे उनकी इच्छाएं पूरी करने में असफल रहते है। इसलिए, आजकल हम देख रहे है कि बड़ी आयु में विवाह हो रहे है। जिसे आमजन कलयुग कहते है पर मेरा मानना है कि  यह कलयुग से अधिक एकाकीयुग है। मेरे मन में सवाल उठता है कि अगर संतति और उनकी संतति वृद्ध पालक की देखभाल करें, उनकी भावनाओं को समझे तो उनका शेष जीवन अच्छे से निकल सकता है। 

इसके अलावा पिता और माता का आज के हालात में एक दुख यह भी है कि उनके बच्चों के जीवन में स्थायित्व नहीं है। जैसे परिवार विघटित हो रहे है, तलाक बढ़ रहे है, बच्चों पर पश्चिमी संस्कृति हावी हो रही है। वे यह भी देखते हैं कि अब बच्चे उनसे अधिक सोशल मीडिया और तकनीकी से जुड़े हैं। पालक बच्चों से स्नेह, सम्मान को पाना चाहते है। फिर भी, बच्चे इतनी सी चीज देने में असफल हो रहे है। पालक इतने पर भी निराश नहीं होते। बल्कि बच्चों की भूलों को भूल जाते है और हर हाल में वह अपनी संतति की खुशी के लिए समर्पित रहते है, भले ही संतति उन्हें बदले में केवल उपेक्षा दे रही हो। 



वास्तव में इस दिशा में वृहद चिंतन की आवश्यकता है। बच्चों को अपने पालकों की ओर कदम बढ़ाने चाहिए। फादर्स डे, एक दिन के लिए नहीं बल्कि हर दिन समय और सम्मान का उपहार देकर मनाना चाहिए। जैसे एक शिशु के लिए उसका पिता छांव है वैसे ही वृद्धावस्था में बच्चों को पिता की छांव बनने की जरूरत है।‌पिता को बच्चों के साथ की, उनकी बातें सुनने व समझने की, उनके किए बलिदानों के मायने जानने और सम्मान देने की आवश्यकता है। पिता की संतुष्टि इन्हीं उपहारों में निहित है। आइए, इस फादर्स डे पर सभी प्रण करें कि अपने-अपने पिता को वह खुशी देंगे, जिसकी उन्हें चाहत है। 

  लेखिका एक पत्रकार है स्वरचित, मौलिक व अप्रकाशित आलेख-इंदौर 

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