सदियों से वैश्विक और भारतीय समाज के लिए मजदूरों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रहा है क्योंकि वे उत्पादन, सेवाओं, निर्माण और अर्थव्यवस्था को गतिशील रखते हैं। लिहाजा सरकारों का भी यह दायित्व बनता है कि श्रमिकों के हितों को सुरक्षित बनाते हुए उन्हें अनुकूल कार्य वातावरण उपलब्ध करवाने के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य एवं पर्याप्त वेतन अदायगी के लिए बनाए गए कानूनों का अक्षरश: पालन करवाए ताकि श्रमिक वर्ग भी समाज में सिर उठा कर जी सके।
समाज के आधारभूत ढांचे के उन्नत विकास और राज्यों की निरंतर प्रगति के लिए श्रमिकों एवं मजदूरों का योगदान किसी से छुपा हुआ नहीं है। लेकिन कई बार ऐसा भी प्रतीत होता है कि लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार, औद्योगिकीकरण एवं शहरों के विस्तार के चलते मजदूरों की उपयोगिता और मांग में वृद्धि के बावजूद उन्हें मिलने वाले लाभों और सम्मान से उन्हें वंचित रखा जा रहा है और अभी भी समाज में उनकी हैसियत दोयम दर्जे के नागरिक की बनी हुई है।
असंगठित क्षेत्र के इन लोगों के लिए अभी भी अपर्याप्त आर्थिक सुरक्षा कवच, स्वास्थ्य सुरक्षा और रहन-सहन की व्यवस्थाएं लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए गहन चिंतन मनन का विषय बनी हुई हैं। बढ़ते पूंजीवाद, नवीन तकनीकों के आगमन, संचार प्रणालियों के उन्नतिकरण और आर्थिक उदारीकरण के वैश्विक प्रभावों के दौर में भी श्रमिकों की समस्याएं आज भी जस की तस बनी हुई हैं।
करोड़ों लोगों के लिए घरों को बनाने वाले करोड़ों ही मजदूर आज भी अपने आश्रय को लेकर तरस रहे हैं और कुंठित एवं तनावग्रस्त जीवन जीने के लिए मजबूर हैं तो इसकी जवाबदेही किस पर है? आज भी मजदूरों के सामने कई समस्याएं बनी हुई हैं, जिनमें कम वेतन, खराब कार्य स्थल, असुरक्षित कार्य वातावरण, सामाजिक जीवन की उपेक्षा, धूल, धुआं यांत्रिक उपकरणों आदि से सुरक्षा का अभाव, उनके कल्याण कार्यों में कमी, स्वच्छता एवं सुरक्षा का अभाव, स्वच्छ वायु और प्रकाश की कमी, काम के अधिक घंटे और कम मजदूरी आदि मुख्य हैं। प्रवासी मजदूरों को आवास समस्या से भी दो-चार होना पड़ता है। इतना ही नहीं, काम के अभाव में इन्हें यत्र-तत्र भटकना पड़ता है और सेवाओं में स्थायित्व की कमी के कारण उनके जीवन में उथल-पुथल मची रहती है। कार्य अनिश्चितता के कारण श्रमिक अपने भविष्य के सम्बन्ध में किसी प्रकार की योजना नहीं बना पाता है और न ही अपने बच्चों की शिक्षा को सही तरीके से सिरे चढ़ा पाता है।
निम्न जीवन स्तर के चलते वे समाज की मुख्यधारा से भी जुड़ नहीं पाते हैं। बहुधा ऐसा भी देखने में आता है कि कई मामलों में मजदूर अवसादग्रस्त होकर नशों के सेवन की ओर उन्मुख हो जाते हैं अथवा आत्महत्या करने जैसे घातक कदम भी उठा लेते हैं। भारत में मजदूरों के हितों के संरक्षण के लिए स्वतंत्रता के बाद से व्यवस्था की गई थी जिसमें बाद में और सुधार किए गए हैं।
भारत में पचास से भी अधिक राष्ट्रीय श्रम कानून तथा बहुत से राज्यनिर्मित श्रम कानून हैं। लेबर एक्ट 1948, जिसे न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के नाम से भी जाना जाता है, यह अधिनियम कुशल और अकुशल श्रमिकों को दी जाने वाली न्यूनतम मजदूरी की दर तय करता है। इन प्रावधानों के बाद भी श्रमकों का जीवन कठिनाई भरा ही है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब तक हमारा मजदूर समुदाय प्रसन्न और सुरक्षित नहीं होगा, तब तक राष्ट्र का विकास अधूरा ही माना जाएगा।
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