शायद ये मुक्ति का पथ है
शायद ये मुक्ति का पथ है,
कि हर संबंध हुआ तटस्थ है।
फैलनी थी अंधकार की गरिमा,
तभी तो हुआ सूरज भी अस्त है।
पीड़ा की पुष्पांजलि यूँ हुई,
कि चेतना शव-शय्या पर पस्त है।
गहराई जो चोटिल चीखें,
हो चुका अब आधार भी धवस्त है।
पथ की उष्णता पर दाह हुए,
उस हृदय को करता कौन आश्वस्त है।
कोठी में मृतप्राय सहनशीलता,
अपने क्षय को देख ये कुंठाग्रस्त है।
शीर्षता छूती भय की दीवारें,
जिन्हें लांघने में साहस भी परस्त है।
नख पैने हैं वियोगी कटार के,
और रक्षक का हर पथ निरस्त है।
इक धूमिल भोर का जीवित भ्रम,
जाने क्यों फिर स्वयं पर विश्वस्त है।
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- मनीषा मंजरी, दरभंगा, बिहार।
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