विकास का आधार बने
इलमा अज़ीम 
जातिगत जनगणना का भारतीय राजनीति और समाज-व्यवस्था पर व्यापक एवं दूरगामी प्रभाव पडेगा। जाति आधारित जनगणना सामाजिक न्याय में सहायक बनेगी या नहीं, लेकिन इससे जातिवादी राजनीति के नए दरवाजे खुलेंगे एवं आरक्षण का मुद्दा एक बार फिर राजनीति की धूरी बनेगा। कांग्रेस एवं विपक्षी दलों ने अपने संकीर्ण एवं स्वार्थी राजनीतिक नजरिये से यह मांग इसलिए उठाई थी ताकि इस आधार पर आगे आरक्षण के मुद्दे को गर्माया जा सके और जातीय गोलबंदी कर चुनावी फायदा लिया जा सके।
 लेकिन भाजपा-सरकार ने जाति जनगणना का ऐलान कर इस मुद्दे को अपनी पाली में ले लिया है। भले ही इसके आंकड़े आने के बाद आबादी के अनुपात में आरक्षण की मांग से भाजपा कैसे निपटेगी, यह बड़ी चुनौती उसके सामने है। वैसे भी इस तरह की पहल जिन राज्यों में हुई है, वहां भी इसे लेकर विवाद चल रहा है। ऐसे विवाद भाजपा के लिये एक नयी चुनौती बनेंगे। जाति आधारित जनगणना से भारतीय समाज के नये कोने-अंतरे-चुनौतियां सामने आयेगी। लेकिन जातिगत जनगणना के समर्थकों का मानना है कि यह सामाजिक न्याय और समावेशी विकास की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम हो सकता है।


 जनगणना में दलितों और आदिवासियों की संख्या तो गिनी जाती है और उन्हें राजनीतिक आरक्षण भी मिला हुआ है लेकिन पिछड़ी और अति पिछड़ी (ओबीसी और ईबीसी) जातियों के कितने लोग देश में हैं इसकी गिनती नहीं होती है। जनगणना एक बहुत बड़ी कवायद है और अगर इसमें जातिगत गणना को भी शामिल किया जा रहा है, तो काम और भी सावधानी एवं सतर्कता से करना होगा। हजारों जातियां हैं और उनकी हजारों उप-जातियां हैं। 


सबको अलग-अलग गिनने के लिए देश को अपनी डिजिटल शक्ति का उपयोग करना पड़ेगा। निश्चित ही नयी राजनीतिक एवं नीतिगत स्थितियां समस्याएं खड़ी होगी। अब सभी जातियों की गिनती होगी। यह गिनती मुस्लिम, ईसाई और अन्य समुदायों में भी होनी चाहिए, क्योंकि कोई दावा कुछ भी करे, जाति और उसके आधार पर विभेद सब जगह है। इससे भी ज्यादा आवश्यक, बल्कि अनिवार्य यह है कि जातिगत जनगणना जातिवाद की राजनीति का हथियार न बने और वह भारतीय समाज को विभाजित न करने पाए।

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