जाति जनगणना का निहितार्थ
 इलमा अज़ीम 
केंद्र की मोदी सरकार ने जाति जनगणना करवाने का फैसला किया है। लंबे समय से यह मांग चल रही थी, अब जाकर केंद्र ने इसे हरी झंडी दिखाई है। अब जाति जनगणना के एक ऐलान ने पूरे देश की राजनीति में हलचल पैदा कर दी है। बड़ी बात यह है कि विपक्ष इसे अपनी जीत के रूप में देख रहा है। 


अब यहां पर सवाल उठता है कि जाति जनगणना का मतलब क्या है, इसकी आखिर क्यों जरूरत पड़ी है? जातिगत जनगणा की शुरुआत अंग्रेजों के समय से हो गई थी। सबसे पहले साल 1931 में जाति जनगणना करवाई गई थी। फिर देश आजाद हुआ और 1951 में फिर जाति जनगणना करवाई गई। यहां पर पहली बार बड़ा खेल हुआ, इतने बड़े सर्वे में ओबीसी वर्ग को शामिल नहीं किया गया। सिर्फ अुसूचित और अनुसूचित जनजातियों को जनगणना में रखा गया। 2011 तक ऐसे ही चलता रहा, जनगणना तो हुई लेकिन ओबीसी वर्ग को लेकर ज्यादा जानकारी सामने नहीं आई। जातिगत जनगणना का जो समर्थन करते हैं, उनका तो साफ मानना है कि एक सेंसस से पिछड़े-अति पिछड़े वर्ग के बारे में काफी कुछ पता चलेगा। 


उनकी शैक्षणिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थिति को लेकर स्पष्टता आएगी। जब उन आंकड़ों में स्पष्टता आएगी तब सरकार भी उनके लिए और मजबूती के साथ नीतियां बना पाएगी। जरूरत पड़ने पर उनकी उचित सहायता भी की जा सकेगी। दरअसल, जाति जनगणना एक आधिकारिक सर्वेक्षण है जो पूरे भारत में लोगों की जातिगत पहचान के बारे में डेटा एकत्र करता है। इसका उद्देश्य जनसंख्या की जाति संरचना की विस्तृत तस्वीर प्रदान करना है, जिससे नीति निर्माताओं को विभिन्न समुदायों की सामाजिक और आर्थिक स्थितियों को समझने में मदद मिलती है।

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